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उद्भव और विकास
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अ. ३ : तीर्थंकर और तीर्थप्रवर्तन
और सुख का अनुभव करते हैं।
७९. णरगं तिरिक्खजोणिं माणुसभावं च देवलोगं च।
सिद्धे य सिद्धवसहिं छज्जीवणियं परिकहेइ॥
नरक, तिर्यंचयोनि, मनुष्यत्व, देवलोक, सिद्ध, सिद्धशिला और छह जीवनिकाय-महावीर ने इन सबका प्रतिपादन किया।
८०. जह जीवा बझंती
___ मुच्चंती जह य संकिलिस्संति। जह दुक्खाणं अंतं
करेंति केई अपडिबद्धा॥
जिन आचरणों से जीव कर्म का बंधन करते हैं, जिन आचरणों से मुक्त होते हैं, जिस प्रवृत्ति से संक्लेश को प्राप्त होते हैं, जिससे अप्रतिबद्ध होकर दुःख का अंत
८१. अट्टा अट्टियचित्ता जह जीवा दुक्खसागरमुवेति।
जह वेरग्गमुवगया कम्मसमुग्गं विहाडेति॥
आतं, आर्त चित्तवाले जीव दुःख-सागर में निमग्न हो जाते हैं और वैराग्य को प्राप्त कर कर्मग्रंथि का विखंडन कर देते हैं।
८२. जह रागेण कडाणं
राग से किए गए कर्मों का फलविपाक पापकारी होता कम्माणं पावगो फलविवागो। है। जो व्यक्ति कर्मों का क्षय करते हैं वे सिद्ध होकर जह य परिहीणकम्मा .
सिद्धालय में चले जाते हैं-महावीर ने इन सबका सिद्धा सिद्धालयमुवेति॥ प्रतिपादन किया।
८३. तमेव धम्म दुविहं आइक्खइ, तं जहा- .
भगवान महावीर ने दो प्रकार के धर्म का निरूपण किया
अगार धर्म और अनगार धर्म।
अगारधम्म। अणगारधम्मं च।
८४. अणगारधम्मो
सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं मुसावाय अदत्तादाण-मेहुण-परिग्गह-राईभोयणाओ वेरमणं।
अनगार धर्म
सर्व प्राणातिपात विरमण, सर्व मृषावाद विरमण, सर्व अदत्तादान विरमण, सर्व मैथुन विरमण, सर्व परिग्रह विरमण, सर्व रात्रिभोजन विरमण।
आयुष्मन्! यह अनगार सामायिक नाम का धर्म है।
अयमाउसो! अणगारसामाइए धम्मे पण्णत्ते।
८५. अगारधम्म दुवालसविहं आइक्खइ, तं जहा-पंच अगारधर्म बारह प्रकार का है-पांच अणुव्रत, तीन
अणुव्वयाई, तिण्णि गुणव्वयाई, चत्तारि गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत। सिक्खावयाई।
पंच अणुव्वयाई, तं जहा-थूलाओ पाणाइवायाओ पांच अणुव्रत-स्थूल प्राणातिपात विरमण, स्थूल वेरमणं, थूलाओ मुसावायाओ वेरमणं, थूलाओ मृषावाद विरमण, स्थूल अदत्तादानविरमण, स्वदारसंतोष, आदिण्णादाणाओ वेरमणं, सदारसंतोसे, इच्छा- इच्छा परिमाण परिमाणे।