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आत्मा का दर्शन
खण्ड-२ समझ सकें वैसी थी। उनका स्वर एक यो
वाला था। अरिहा धम्म परिकहेइ-अत्थि लोए अत्थि अलोए, भगवान महावीर ने धर्म का आख्यान इस रूप में अत्थि जीवा अत्थि अजीवा, अत्थि बंधे अस्थि किया हैमोक्खे, अत्थि पुण्णे अत्थि पावे, अत्थि आसवे अत्थि लोक है। अलोक है। जीव है। अजीव है। संवरे, अत्थि वेयणा अत्थि निज्जरा।
__बंध, मोक्ष, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, वेदना और
निर्जरा-ये सब वास्तविक तत्त्व हैं। अत्थि अरहंता, अत्थि चक्कवट्टी, अत्थि बलदेवा, अर्हत्, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, नरक, नैरयिक, अत्थि वासुदेवा, अत्थि नारगा, अत्थि नेरइया, अत्थि तिर्यक्योनिक-इन सबका अस्तित्व है। तिरिक्खजोणिया, अत्थि तिरिक्खजोणिणीओ।
अत्थि माया, अत्थि पिया, अत्थि रिसओ, अस्थि माता, पिता, ऋषि, देव, देवलोक, सिद्ध, सिद्धि, देवा, अत्थि देवलोया, अत्थि सिद्धा, अत्थि सिद्धी, परिनिर्वाण और परिनिर्वृत्त-ये सब विद्यमान है। .. अत्थि परिणिव्वाणे, अत्थि परिणिव्वुया।
अत्थि पाणाइवाए मुसावाए अदत्तादाणे मेहुणे प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, परिग्गहे, अत्थि कोहे माणे माया लोभे, अत्थि पेज्जे क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रेय, दोष, कलह, अभ्याख्यान, दोसे कलहे अब्भक्खाणे पेसुण्णे परपरिवाए अरइरई पैशुन्य, परपरिवाद, रतिअरति, माया-मृषा, मिथ्यादर्शनमायामोसे मिच्छादसणसल्ले।
शल्य-ये अठारह पाप हैं। अत्थि पाणाइवायवेरमणे मुसावायवेरमणे प्राणातिपात विरमण, मृषावाद विरमण अदत्तादान अदत्तादाणवेरमणे मेहणवेरमणे परिग्गहवेरमणे अत्थि विरमण, मैथुन विरमण, परिग्रह विरमण, क्रोध विवेक, कोहविवेगे माणविवेगे मायाविवेगे लोभविवेगे। मान विवेक, माया विवेक, लोभ विवेक, प्रेय विवेक, दोष पेज्जविवेगे दोसविवेगे कलहविवेगे अब्भक्खाण- विवेक, कलह विवेक, अभ्याख्यान विवेक, पैशुन्य विवेक, विवेगे पेसुण्णविवेगे परपरिवायविवेगे अरतिरतिविवेगे । परपरिवाद विवेक, अरति-रति विवेक, मायामृषा विवेक, मायामोसविवेगे मिच्छादसणसल्लविवेगे।
मिथ्यादर्शन शल्य विवेक-ये १८ पापों के प्रतिपक्ष हैं। सव्वं अत्थिभावं अत्थि त्ति वयइ। सव्वं णत्थिभावं भगवान महावीर ने सर्व अस्तित्व का अस्तित्व के णत्थि त्ति वयइ। सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला रूप में प्रतिपादन किया। सर्व नास्तित्व का नास्तित्व के भवंति। दुचिण्णा कम्मा दचिण्णफला भवंति। रूप में प्रतिपादन किया। सुचीर्ण कर्मों का फल सुचीर्ण
होता है। दुश्चीर्ण कर्मों का फल दुश्चीर्ण होता है। फुसइ पुण्णपावे, पच्चायंति जीवा सफले प्राणी पुण्य और पाप का बंधन करता है। उनके कल्लाणपावए।
अनुसार उनका पुनर्जन्म होता है। पुण्य और पाप सफलफलसहित होते हैं।
७७. जह णरगा गम्मंती जे णरगा जा य वेयणा णरए।
सारीरमाणसाइं दुक्खाइं तिरिक्खजोणीए॥
जिन आचरणों से जीव नरक में जाता है। नरक में जैसी वेदना है। तिर्यंचयोनि में शारीरिक और मानसिक
७८. माणुस्संच अणिच्चं वाहि-जरा-मरण-वेयणा-पउर।
देवे य देवलोए देविड्ढिं देवसोक्खाई॥
मनुष्य का जीवन अनित्य है। वह व्याधि, जरा, मृत्यु और वेदना से भरा हुआ है। देवलोक में देव दिव्य ऋद्धि