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उद्भव और विकास
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'कणीक्से वाउभूई अणगारे गोयमे गोत्तेणं पंच
समणसयाई वाएइ ।
थेरे अज्जवियत्ते भारद्दाए गोत्तेणं पंच समणसयाइं वाएइ ।
थेरे अज्जसुहम्मे अग्गिवेसायणे गोत्तेणं पंच समणसयाइं वाएइ । मेरे मंडियपुत्तेवासिट्ठे गोत्तेणं अट्ठाई समणसयाइं वाएइ ।
थेरेमोरियपुत्ते कासवे गोत्तेणं अद्धट्ठाई
समणस्रयाइं वाएइ ।
थेरे अकंपिए गोय गोत्तेणं ।
थेरे अयलभाया हारियायणे गोत्तेंणं ।
ते दुन्निवि थेरा तिन्नि तिन्नि समणसयाइं वाएंति ।
थेरे मेयज्जे थेरे य पभासे एए दोत्रि वि थेरा कोडिन्ना गोत्तेणं तिन्न-तिनि समणसयाइं वाएंति ।
से एतेणं अट्ठेणं अज्जो ! एवं बुच्चइ- समणस्स भगवओ महावीरस्स नव गणा एक्कारस गणहरा होत्या ।
सव्वे वि णं एते समणस्स भगवओ महावीरस्स एक्कारस वि गणहरा दुवालसंगिणो चोद्दसपुव्विणो समत्तगणिपिडगधरा रायगिहे नगरे मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं कालगया जाव सव्वदुक्खप्पहीणा ।
थे इंदभूई, थेरे अज्जसुहम्मे सिद्धिं गए महावीरे - पच्छा दोन्नि वि परिनिव्वुया ।
जे इमे अज्जत्ताते समणा णिग्गंथा विहरंति, एए णं सव्वे अज्जसुहम्मस्स अणगारस्स आवच्चिज्जा । अवसेसा गणहरा निरवच्चा वोच्छिन्ना ।
अ. ३ : तीर्थंकर और तीर्थप्रवर्तन
तीसरे गणधर गौतमगोत्रीय वायुभूति अनगार थे । वे ५०० श्रमणों को वाचना देते-पढ़ाते थे।
चौथे गणधर भारद्वाजगोत्रीय स्थविर आर्य व्यक्त थे। वे ५०० श्रमणों को वाचना देते-पढ़ाते थे ।
पांचवें गणधर अग्निवेश्यायनगोत्रीय स्थविर आर्य सुधर्मा थे। वे ५०० श्रमणों को वाचना देते-पढ़ाते थे।
छट्ठे गणधर वाशिष्ठगोत्रीय स्थविर मंडितपुत्र थे । वे ३५० श्रमणों को वाचना देते-पढ़ाते थे।
७६. तए णं समणे भगवं महावीरे कूणियस्स रण्णो भिंभसारपुत्तस्स सुभद्दापमुहाण य देवीणं तीसे य महतिमहालियाए इसिपरिसाए मुणिपरिसाए जइपरिसाए देवपरिसाए सव्वभासाणुगामिणीए सरस्सईए जोयणणीहारिया सरेणं अद्धमागहाए भासाए भासइ ।
सातवें गणधर काश्यपगोत्रीय स्थविर मौर्यपुत्र थे । वे ३५० श्रमणों को वाचना देते-पढ़ाते थे ।
आठवें गणधर गौतमगौत्रीय स्थविर अकंपित थे । नौवें गणधर हारितायनगोत्रीय स्थविर अचलभ्राता थे। ये दोनों स्थविर ३००-३०० श्रमणों को वाचना देतेपढ़ाते थे।
दसवें गणधर स्थविर मेतार्य और ग्यारहवें गणधर स्थविर प्रभास - दोनों कौडिन्यगोत्रीय थे । ये दोनों स्थविर ३००-३०० श्रमणों को वाचना देते-पढ़ाते थे ।
इस अपेक्षा से यह कहा गया कि श्रमण भगवान महावीर के ९ गण और ११ गणधर थे ।
श्रमण भगवान महावीर के ये ११ गणधर द्वादशांगी के ज्ञाता थे। वे चतुर्दशपूर्वी और संपूर्ण गणिपिटक के धारक थे। राजगृह नगर में एकमास के चौविहार उपवास
कालधर्म को प्राप्त हुए। सब दुःखों का क्षय किया। स्थविरं इन्द्रभूति और स्थविर आर्य सुधर्मा दोनों भगवान के सिद्ध होने के पश्चात् परिनिर्वाण को प्राप्त हुए । वर्तमान में जो श्रमण निर्ग्रन्थ हैं वे सब आर्य सुधर्मा की सन्तान - पारंपरिक शिष्य हैं।
शेष गणधर निरपत्य-शिष्य परम्परा से रहित हैं।
धर्मदेशना
श्रमण भगवान महावीर राजगृह नगर में आए। उनकी धर्म-सभा में बिंबसार पुत्र राजा कोणिक और सुभद्रा आदि रानियां उपस्थित थीं। भगवान ने विशाल ऋषिपरिषद्, मुनिपरिषद्, यतिपरिषद् और देवपरिषद् के मध्य अर्द्धमागधी भाषा में प्रवचन किया। उनकी भाषा सर्वभाषानुगामिनी - सब लोग अपनी-अपनी भाषा में