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प्रायोगिक दर्शन
७७. अप्पाणं झायंतो दंसणणाणमइओ अणण्णमओ । लहदि अचिरेण अप्पाणमेव सो कम्मपविमुक्कं ॥
७८. आरोग्गबोहिलाभं समाहिवरमुत्तमं दिंतु ।
७९. चदेसु निम्मलयरा आइच्चेसु अहियं पयासयरा । सागरवरगंभीरा सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥
८९. सव्वे सरा णियति । '
८०. सिवमयलमरुयमणंतमक्खयमव्वाबाह मपुणरावित्तयं सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपत्ताणं ।
८२. तक्का जत्थ ण विज्जइ ।
८३. मई तत्थ ण गाहिया ।
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८४. ओए अप्पतिट्ठाणस्स खेयण्णे ।
परमात्मा
८५. से ण दीहे, ण हस्से, ण वट्टे, णं तंसे, ण चउरंसे, ण परिमंडले ।
८६.ण किण्हे, न णीले, ण लोहिए, ण हालिद्दे, ण सुकिल्ले ।
अ. १२ : आत्मवाद
आत्मा का ध्यान करनेवाला दर्शन और ज्ञानमय होकर आत्मा से अनन्य हो जाता है। ऐसा पुरुष शीघ्र मुक्त आत्मा-परमात्मा बन जाता है।
सिद्ध मुझे आरोग्य, बोधि और उत्तम समाधि दें।
चन्द्रमा से अधिक निर्मल, सूर्य से अधिक प्रकाशकर, समुद्र से अधिक गंभीर सिद्ध मुझे सिद्धि दें।
सिद्ध वह है जो शिव, अचल, अरुज (नीरोग) अनन्त, अक्षय, अव्याबाध, अपुनरावृत्ति - जहां जाने के बाद पुनरावर्तन नहीं होता इन विशेषणों से विशिष्ट सिद्धिगति नामवाले स्थान को प्राप्त होता है।
परमात्मा शब्द के द्वारा प्रतिपाद्य नहीं है। सब शब्द वहां तक पहुंच कर लौट जाते हैं।
वह तर्कगम्य नहीं है-वहां तक कोई तर्क पहुंचता नहीं
वह मति के द्वारा ग्राह्य नहीं है ।
वह अकेला है - राग-द्वेष रहित है। वह अप्रतिष्ठानशरीर मुक्त है। वह क्षेत्रज्ञ - ज्ञाता है।
वह न दीर्घ है, न ह्रस्व है, न वृत्त है, न त्रिकोण है, न चतुष्कोण है, और न परिमंडल है।
वह न कृष्ण है, न नील है, न लाल है, न पीत है और शुक्ल है।
८७. सुभिगंधे, ण दुरभिगंधे ।
८८.ण तित्ते, ण कडुए, ण कसाए, ण अंबिले, ण • महुरे ।
१. केशी और प्रदेशी के संवाद से आत्मा का अस्तित्व सिद्ध होता है। आत्मा की शुद्ध स्थिति है- परमात्मा ।
वह न सुगंध है और न दुर्गन्ध है।
वह न तिक्त है, न कटु है, न कषाय और न मधुर है।
न अम्ल है