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आत्मा का दर्शन
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खण्ड-४
गौतम उवाच: ७. से सव्वदंसी अभिभूय णाणी
गौतम-वे सर्वदर्शी हैं। वे ज्ञान के आवरण को हटाकर णिरामगंधे धिइमं ठियप्पा।। केवली बन चुके हैं। वे विशुद्धभोजी, धृतिमान और ' अणुत्तरे सव्वजगंसि विज्जं
स्थितात्मा हैं। वे संपूर्ण लोक में अनुत्तर हैं। वे विद्वान्, गंथा अतीते अभए अणाऊ॥ अपरिग्रही और अभय हैं। वे अनायु-जन्म-मरण के चक्र
से मुक्त हैं।
जंबू उवाच : ८. कयरे मम्गे अक्खाते, माहणेण मतीमता।
जं मग्गं उज्जु पावित्ता ओहं तरति दुत्तरं?
जंबू-मतिमान् श्रमण भगवान् महावीर ने वह कौन-सा मार्ग बतलाया है, जिस मार्ग को पाकर मनुष्य आसानी से दुस्तर प्रवाह को तर जाता है ?
सुधर्मा उवाच: ९. समता धम्ममुदाहरे मुणी।
सुधर्मा-भगवान महावीर ने समता धर्म का प्रतिपादन किया है।
१०.समयं लोगस्स जाणित्ता. एत्थ सत्थोवरए।'
सब आत्माएं समान हैं-यह जानकर मनुष्य समूचे जीव लोक की हिंसा से उपरत हो जाए।
समता : सब जीवों के प्रति .
११.सव्वे पाणा पियाउया सुहसाया दुक्खपडिकूला
अप्पियवहा पियजीविणो जीविउकामा।
सब प्राणियों को आयुष्य प्रिय है। वे सुख का आस्वाद करना चाहते हैं। दुःख से घबराते हैं। उन्हें वध अप्रिय है। जीवन प्रिय है। वे जीवित रहना चाहते हैं।
१२.पुढवीजीवा पुढो सत्ता आउजीवा तहागणी।
वाउजीवा पुढो सत्ता तणरुक्खा सबीयगा।
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और बीज पर्यन्त तृण व वृक्ष-ये सब जीव पृथक् सत्त्व हैं-स्वतंत्र अस्तित्व वाले हैं।
१३.अहावरे तसा पाणा एवं छक्काय आहिया।
इत्ताव एव जीवकाए णावरे विज्जती कए॥
सब गतिशील प्राणी त्रस हैं। इस प्रकार छह जीवकाय बतलाए गये हैं। जीवकाय इतने ही हैं। इनसे अतिरिक्त कोई जीवकाय नहीं है।
१४. सव्वाहिं अणुजुत्तीहिं मइमं पडिलेहिया।
सव्वे अकंतदुक्खा य अतो सव्वे अहिंसया।।
मतिमान् मनुष्य सभी अनुयुक्तियों सम्यक् हेतुओं से जीवों की पोलोचना करे। सब जीवों को दुःख अप्रिय है, इसलिए किसी की भी हिंसा न करे।
१५.एयं खुणाणिणो सारं जंण हिंसति कंचणं।
अहिंसा समयं चेव एतावंतं विजाणिया॥
ज्ञानी होने का यही सार है कि वह किसी की हिंसा नहीं करता। समता अहिंसा है-इतना ही उसे जानना है।