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प्रायोगिक दर्शन
१६. ते सव्वे पावादुया आइगरा धम्माणं णाणापण्णा णाणाछंदा णाणासीला णाणादिट्ठी णाणारुई णाणारंभा णाणाज्झवसाणसंजुत्ता एगं महं मंडलिबंधं किच्चा सव्वे एगओ चिट्ठति ।
पुरिसे य सागणियाणं इंगालाणं पाई बहुपडिपुण्णं अओमएणं संडासएणं गहाय ते सव्वे पावादुए.... एवं वयासी - हंभो पावादुया ! इमं ताव तुब्भे सागणियाणं इंगालाणं पाई बहुपडिपुण्णं हाय मुहुत्तगं-मुहुत्तगं पाणिणा धरेह | णो बहु संडासगं संसारियं कुज्जा । णो बहु अग्निथंभणियं कुज्जा | णो बहु. साहम्मियवेयावडियं कुज्जा । णो बहु परधम्मियवेयावडियं कुज्जा। उज्जुया णियागपडिवण्णा अमायं कुव्वमाणा पाणि पसारेह - इति वुच्चा से पुरिसे तेसिं पावादुयाण तं सागणियाणं इंगालाणं पाइं बहुपडिपुण्णं अओमएणं संडास एणं गाय पाणिसुं णिसिरति । तए णं ते पावादुया.........पाणि पडिसाहरंति । तए णं से पुरिसे ते सव्वे पावादुए...... वयासी- भो 'पावादुया! ....... कम्हा णं तुब्भे पाणि
एवं
पडिसाहरह ?
पाणि णो डज्झेज्जा ?
दड्ढे किं भविस्सइ ?
दुक्खं ।
दुक्खं तिमण्णमाणा पडिसाहरह ?
एस तुला एस पमाणे एस समोसरणे ।
पत्तेयं
तुला पत्तेयं पमाणे पत्तेयं समोसरणे ।
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१७. लाभालाभे सुहे दुक्खे जीविए मरणे तहा । समो निंदापसंसासु तहा माणावमाणओ ॥
अ. १ : समत्व
अनेक प्रावादुक धर्म के प्रवर्तक, विभिन्न प्रज्ञा वाले, विभिन्न अभिप्राय वाले हैं। वे विविध शील, विविध दृष्टि, विविध रुचि, विविध आरंभ और विविध अध्यवसाय से युक्त हैं। वे सब एक बड़ी मंडली बनाकर एक स्थान पर बैठे हैं।
उस समय कोई पुरुष जलते हुए अंगारों से भरे पात्र को लोहे की संडासी से पकड़ कर उन प्रावादुकों से कहता है - तुम सब जलते हुए अंगारों से भरे इस पात्र को मुहूर्त (क्षण) भर हाथ में पकड़ कर रखो। इसे न संडासी से पकड़कर दूसरे के हाथ में दो, न अग्निस्तंभिनी विद्या का प्रयोग करो, न साधर्मिक के लिए अग्निस्तंभन करो और न परधर्म वालों के लिए अग्निस्तंभन करो । पंक्तिबद्ध बैठ शपथपूर्वक इंद्रजाल का प्रयोग न करते हुए हाथ को फैलओ। इस प्रकार कहता हुआ वह पुरुष जलते हुए अंगारों से भरे पात्र को लोहे की संडासी से पकड़ता है। और उन प्रावादुकों के हाथ की ओर बढ़ाता है।
प्रावादुक अपना हाथ पीछे खींच लेते हैं।
वह पुरुष उन प्रावादुकों से कहता है- तुम हाथ को पीछे किसलिए खींच रहे हो ?
क्या हाथ नहीं जल जायेगा ?
हाथ जलने से क्या होगा ? दुःख होगा।
दुःख होगा, यह मानकर तुम हाथ पीछे खींच रहे हो। इससे यह स्पष्ट है-दुःख सबका समान है। कोई भी प्राणी दुःख नहीं चाहता।
यही तुला है, यही प्रमाण है और यही समवसरण - समवाय है।
प्रत्येक के लिए यही तुला है, प्रत्येक के लिए यही प्रमाण है और प्रत्येक के लिए यही समवसरण है।
समता : अनुकूलता-प्रतिकूलता में
प्रज्ञावान लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण, निंदा - प्रशंसा, मान-अपमान - इन सब द्वंद्वों में सम रहता है।