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समणसुत्तं
७५३
अ. ४ : स्याद्वाद ७५५. जयइ जगजीवजोणी,
जगत् के जीवों की योनि अर्थात् उत्पत्तिस्थान को वियाणओ जगगुरू जगाणंदो। जाननेवाले, जगत् के गुरु, जगत् के आनन्ददाता, जगत् - जगणाहो जगबंधू,
के नाथ, जगत् के बंधु, जगत् के पितामह भगवान् जयइ जगप्पियामहो भयवं॥ जयवन्त हों।
७५६. जयइ सुयाणं पभवो,
तित्थयराणं अपच्छिमो जयइ। जयइ गुरू लोगाणं, जयइ महप्पा महावीरो॥
द्वादशांगरूप श्रुतज्ञान के उत्पत्तिस्थान जयवंत हों, तीर्थंकरों में अन्तिम जयवंत हो। लोकों के गुरु जयवंत हों। महात्मा महावीर जयवंत हों।
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