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आत्मा का दर्शन ७५२
खण्ड-५ अहोवि सत्ताण वि उड्ढंच,
वही क्रियावाद का अर्थात् सम्यक आचार-विचार का जो आसवं जाणति संवरं च। कथन कर सकता है। दुक्खं च जो जाणइ णिज्जरं च,
सो भासिउमरिहति किरियवादं॥
७४९. लद्धं अलद्धपुव्वं,
जिणवयण-सुभासिदं अमिदभूदं। गहिदो सुग्गइ-मग्गो,
__णाहं मरणस्स बीहेमि॥
जो मुझे पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ. वह अमतमय सुभाषित जिनवचन आज मुझे उपलब्ध हुआ है और तदनुसार सुगति का मार्ग मैंने स्वीकार किया है। अतः अब मुझे मरण का कोई भय नहीं है।
वीरस्तवन
वीरस्तवन
७५०. णाणं सरणं मे,
ज्ञान मेरी शरण है, दर्शन मेरी शरण है, चारित्र मेरी दंसणं च सरणं च चरिय सरणं च।। शरण है, तप और संयम मेरी शरण है तथा भगवान् तव संजमं च सरणं,
महावीर मेरी शरण हैं। भगवं सरणो महावीरो॥
७५१. से सव्वदंसी अभिभूयणाणी,
णिरामगंधे धिइमं ठियप्पा। अणुत्तरे सव्वजगंसि विज्जं,
गंथा अतीते अभए अणाऊ॥
वे भगवान् महावीर सर्वदर्शी, केवलज्ञानी, मूल और उत्तर-गुणों सहित विशुद्ध चारित्र का पालन करनेवाले, धैर्यवान् और ग्रंथातीत अर्थात् अपरिग्रही थे। अभय थे और आयुकर्म से रहित थे। '
७५२. से भूइपण्णे अणिएयचारी,
ओहंतरे धीरे अणंतचक्खू। अणुत्तरे तवति सूरिए व,
वइरोयणिंदे-व तमं पगासे॥
वे वीरप्रभु अनन्तज्ञानी, अनियताचारी थे। संसारसागर को पार करनेवाले थे। धीर और अनन्तदर्शी थे। सूर्य की भांति अतिशय तेजस्वी,थे। जैसे जाज्वल्यमान अग्नि अंधकार को नष्ट कर प्रकाश फैलाती है, वैसे ही उन्होंने भी अज्ञानांधकार का निवारण करके पदार्थों के सत्यस्वरूप को प्रकाशित किया था।
७५३. हत्थीसु एरावणमाहु णाए,
सीहो मिगाणं सलिलाण गंगा। पक्खीसु वा गरुले वेणुदेवो,
निव्वाणवादीणिह नायपुत्ते॥
जैसे हाथियों में ऐरावत, मृगों (पशु जाति) में सिंह, नदियों में गंगा, पक्षियों में वेणुदेव (गरुड़) श्रेष्ठ हैं, उसी तरह निर्वाणवादियों में नागपुत्र (महावीर) श्रेष्ठ थे।
७५४. दाणाण सेठं अभयप्पयाणं,
___ सच्चेसु या अणवज्जं वयंति। तवेसु वा उत्तम बंभचेरं,
लोगुत्तमे समणे नायपुत्ते॥
जैसे दानों में अभयदान श्रेष्ठ है, सत्यवचनों में अनवद्य वचन (पर-पीड़ाजनक नहीं) श्रेष्ठ है। जैसे सभी सत्यतपों में ब्रह्मचर्य उत्तम है, वैसे ही नागपुत्र श्रमण लोक में उत्तम थे।