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________________ समणसुत्तं अ.४: स्याद्वाद माना जाए वहां ज्ञायक शरीर नोआगम द्रव्यनिक्षेप है। जैसे राजनीतिज्ञ के मृत शरीर को देखकर कहना कि राजनीति मर गयी। ज्ञायकशरीर भी भूत, वर्तमान और भविष्य की अपेक्षा तीन प्रकार का तथा भूतज्ञायक शरीर च्युत, त्यक्त और च्यावित रूप से पुनः तीन प्रकार का होता है। वस्तु को जो स्वरूप भविष्य में प्राप्त होगा उसे वर्तमान में ही वैसा मानना भावी नो-आगम द्रव्यनिक्षेप है। जैसे युवराज को राजा मानना तथा किसी व्यक्ति का कर्म जैसा हो अथवा वस्तु के विषय में लौकिक मान्यता जैसी हो गयी हो उसके अनुसार ग्रहण करना कर्म या तद्व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्यनिक्षेप है। जैसे जिस व्यक्ति में दर्शनविशुद्धि, विनय आदि तीर्थंकर नामकर्म का बंध करानेवाले लक्षण दिखायी दें उसे तीर्थंकर ही कहना अथवा पूर्णकलश, दर्पण आदि पदार्थों को लोकमान्यतानुसार मांगलिक कहना। ७४३-७४४. आगम-णपआगमदो, तहेव भावो कि होदि दव्वं वा। अरहंत-सत्थजाणो, - आगमभावो दु अरहंतो॥ तग्गुणए य परिणदो, णो आगमभाव होइ अरहंतो। तग्गुणएई झादा, केवलणाणी हु परिणदो भणिओ॥ तत्कालवर्ती पर्याय के अनुसार ही वस्तु को संबोधित करना या मानना भावनिक्षेप है। इसके भी दो भेद हैं-आगम और नोआगम। जैसे अर्हन्त-शास्त्र का ज्ञायक जिस समय उस ज्ञान में अपना उपयोग लगा रहा है उसी समय अर्हन्त है; यह आगमभावनिक्षेप है। जिस समय उसमें अर्हन्त के समस्त गुण प्रकट हो गये हैं उस समय उसे अर्हन्त कहना तथा उन गुणों से युक्त होकर ध्यान करनेवाले को केवलज्ञानी कहना नोआगमभावनिक्षेप है। . .. समापन समापन ७४५. एवं से उदाहु अणुत्तरनाणी, अणुत्तरदंसी अणुत्तरणाणदंसणधरे। अरहा नायपुत्ते भगवं वेसालिए वियाहिए॥ इस प्रकार यह हितोपदेश अनुत्तरज्ञानी अनुत्तरदर्शी तथा अनुत्तरज्ञानदर्शन के धारी नागपुत्र भगवान् महावीर ने विशाला नगरी में दिया था। ७४६. णहि णूण पुरा अणुस्सुयं, अदुवा तं तह णो समुठ्ठियं। मुणिणा सामाइ आहियं, नाएणं जगसव्वदंसिणा॥ सर्वदर्शी नागपुत्र भगवान् महावीर ने सामायिक आदि का उपदेश दिया था, किन्तु जीव ने उसे सुना नहीं अथवा सुनकर उसका सम्यक् आचरण नहीं किया। ७४७-७४८. अत्ताण जो जाणइ जो य लोगं. जो आगतिं जाणइ णागतिं च। जो सासयं जाण असासयं च, जातिं मरणं च चयणोववातं॥ जो आत्मा को जानता है, लोक को जानता है, आगति और अनागति को जानता है, शाश्वत-अशाश्वत, जन्म-मरण, च्यवन और उपपाद को जानता है, आस्रव और संवर को जानता है, दुःख और निर्जरा को जानता है
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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