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प्रायोगिक दर्शन
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वयासी - से णूणं भंते! हत्थिस्स कुंथुस्स य समे
चैव जीवे ?
तापसी ! हत्थस्स य कुंथुस्स य समे चेव जीवे ।
से भंते! हत्थीओ कुंथू अप्पकम्मतराए चेव अप्प किरियतराए चेव अप्पासवतराए चेव अप्पाहारतराए चेव अप्पनीहारतराए चेव अप्पुस्सासतराए चेव अप्पनीसासतराए चेव अप्पिड्ढितराए चेव अप्पमहतराए चेव अप्पज्जइतराए चेव कुंथुओ हत्थी महाकम्मतराए चेव महाकिरियतंराए चेव महासवतराए चेव महाहारतराए चेव महानीहारतराए चेव महाउस्सासतराए चेव महानीसासतराए चेव महिड्ढितराए चेव महामहतराए चेव महज्जुइतराए चेव ?
हंता पएसी !
म्हाणं भंते! हत्थस्स य कुंथुस्स य समे चेव जीवे ?
कूटागारशाला और दीपक
३३. पएसी ! से जहाणामए कूडागारसाला सियादुहओ लित्ता गुत्ता गुत्तदुवारा णिवाया णिवायगंभीरा । अह णं केइ पुरिसे जोई व दीवं व गहाय तं कूडागारसालं अंतो- अंतो अणुपविसइ, से कूडागारसाला सव्वतो समंता घणनिचियनिरंतर - णिच्छिड्डाई दुवारवयणाई पिहेति । तीसे कूडागारसालाए बहुमज्झदेसभाए तं पईवं पलीवेज्जा । तए णं से पईवे तं कूडागारसालं अंतोअंतो ओभासेइ उज्जोवेइ तावेति पभासेइ णो चेव बाहिं ।
अहां से पुरिसे तं पईवं इड्डरएणं पिज्जा, तए णं से पईवे तं इड्डरयं अंतो- अंतो ओभासेइ उज्जोवेइ तावेति पभासेइ । णो चेव णं इड्डरगस्स बाहिं णो चेव णं कूडागारसालं, णो चेव णं कूडागारसालाए बाहिं।.....
एवामेव पएसी! जीवे वि जं जारिसयं पुव्वकम्मनिबद्धं बोंदिं णिव्वत्तेइ तं असंखेज्जेहिं जीवपदेसेहिं सचित्ती करेइ-खुड्डियं वा महालियं वा ।
अ. १२ : आत्मवाद
हां, प्रदेशी !
भंते! क्या हाथी की अपेक्षा कुंथु में कर्म, क्रिया, आश्रव, आहार, निहार, उच्छ्वास, निःश्वास, ऋद्धि, महात्म्य और द्युति-ये सब अल्प होते हैं और कुंथु की अपेक्षा हाथी में ये सब अधिक होते हैं ?
हां, प्रदेशी !
भंते! हाथी और कुंथु में जीव समान कैसे हो सकता
है ?
प्रदेशी ! एक कूटागारशाला है। वह दोनों ओर से लिपी हुई है। उसका द्वार गुप्त है। हवा का कोई प्रवेश नहीं है। उस कूटागारशाला में कोई पुरुष मशाल या दीपक लेकर जाता है। कूटागारशाला के समस्त छिद्रों को और द्वार को अच्छी तरह से बंद कर देता है।
कूटागारशाला के बीचोंबीच जलता हुआ दीपक रखता है। उस स्थिति में वह दीपक कूटागारशाला के भीतर-भीतर ही प्रकाश करेगा, बाहर नहीं ।
उस दीपक पर ढक्कन रख दिया जाए तो वह उसी के भीतर प्रकाश करेगा, ढक्कन के बाहर नहीं । न कूटागारशाला में ही प्रकाश करेगा न उसके बाहर ही ।
प्रदेशी ! इसी प्रकार जीव अपने पूर्व कर्म के अनुसार छोटे बड़े जिस शरीर का निर्माण करता है, उसे अपने असंख्य प्रदेशों द्वारा सचित्त - चेतना युक्त बना लेता है।