SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 686
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मत्तं ९९. जहा य अंड-प्पभवा बलागा, एमेव मोहाययणं खु तण्हा, १००. सम-संतोस - जलेणं, अंडं बलाग-प्पभवं जहा य । मोहं च तण्हाययणं वयंति ॥ १०१. वय समिदि कसायाणं, जो धोवद तिव्व-लोहमल पुंजं । भोयण-गिद्धि-विहीणो, तस्स सउचं हवे विमलं ॥ दंडाणं तह इंदियाण पंचन्हं । धारण- पालण - णिग्गह १०६. चाय - ज़ओ संजमो भणिओ ॥ १०२. विसय कसाय - विणिग्गह- भावं, १०५. होऊण य णिस्संगो, णिदेण दु वट्टदि काऊणं झाण-सज्झाए । जो भावइ अप्पाणं, तस्स तवं होदि णियमेण ॥ १०३. णिव्वेद - तियं भावइ, मोहं चइऊण- सव्वदव्वेसु । जो तस्स हवे चागो, इदि भणिदं जिणवरिदेहिं ॥ ६६३ १०४. जे य कंते पिए भोए, लद्धे विपिट्ठिकुव्वइ । साहीणे चयइ भोए, से हु चाइ त्ति वुच्चई ॥ • अहमिक्को खलु सुद्धो, णियभावं णिग्गहित्तु सुहदुहदं । अणयारो तस्साss किंचण्णं ॥ ण वि अत्थि मज्झ किंचि वि, दंसणणाणमइओ सदाऽरूवी । अण्णं परमाणुमित्तं पि ॥ अ. १ : ज्योतिर्मुख जैसे बलाका अंडे से उत्पन्न होती है और अंडा बलाका से उत्पन्न होता है, उसी प्रकार तृष्णा मोह से उत्पन्न होती है और मोह तृष्णा से उत्पन्न होता है। जो समता व संतोष के जल से तीव्र लोभ के मल समूह को धोता है, और जिसमें भोजन की लिप्सा नहीं है उसके विमल उत्तम शौच धर्म होता है। व्रत धारण, समिति - पालन, कषाय- निग्रह, मानसिक, वाचिक, कायिक दंड का त्याग, पंचेन्द्रियजय- इन सबको संयम धर्म कहा जाता है। यही उत्तम संयम धर्म है। इंद्रिय विषयों तथा कषायों का निग्रह कर ध्यान और स्वाध्याय के द्वारा जो आत्मा को भावित करता है, उसके तप होता है। यही उत्तम तप धर्म है। जो सब द्रव्यों से होने वाले मोह को त्याग कर निर्वेद त्रिक (संसार-वैराग्य, देह-वैराग्य तथा भोग- वैराग्य) से अपनी आत्मा को भावित करता है, उसके त्याग धर्म होता है, ऐसा जिनेन्द्र देव ने कहा है। यही उत्तम त्याग धर्म है। त्यागी वही कहलाता है जो कान्त और प्रिय भोग उपलब्ध होने पर, उनकी ओर से पीठ फेर लेता है और स्वाधीनतापूर्वक भोगों का त्याग करता है । जो मुनि सब प्रकार के परिग्रह का त्याग कर निःसंग हो जाता है, अपने सुखद व दुःखद भावों का निग्रह कर निर्द्वद्व विचरता है, उसके उत्तम आकिंचन्य धर्म होता है। यही उत्तम आकिंचन्य धर्म है। मैं एक, शुद्ध, दर्शन-ज्ञानमय, नित्य और अरूपी हूं। इसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी मेरा नहीं है, परमाणुमात्र भी मेरा नहीं है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy