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आत्मा का दर्शन
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खण्ड-५
अनुभव कर चुका है-) यह जान लेने पर कौन गोत्रवादी होगा? कौन मानवादी होगा?
९१. जो चिंतेइ ण बंकं, ण कणदि वंकं ण जंपदे वंक।
ण य गोवदि णियदोसं,अज्जव-धम्मो हवे तस्स॥
जो वक्र विचार नहीं करता, वक्र कार्य नहीं करता, वक्र वचन नहीं बोलता और अपने दोषों को नहीं छिपाता, उसके उत्तम आर्जव धर्म होता है।
९२.परसंतावय-कारण-वयणं,मोत्तण स-पर-हिद-वयणं।
जो वददि भिक्खु तुरियो, तस्सदुधम्मो हवे सच्च॥
जो भिक्षु (श्रमण) दूसरों को संताप पहुंचाने वाले वचनों का त्याग कर स्व-पर-हितकारी वचन बोलता है उसके चतुर्थ उत्तम सत्य धर्म होता है।
९३.मोसस्स पच्छा य पुरत्थओ य,
असत्य बोलने के पश्चात्, पहले और बोलते समय पओगकाले य दुही दुरंते। वह दुःखी होता है। उसका पर्यवसान भी दुःखमय होता एवं अदत्ताणि समाययंतो,
है। इस प्रकार वह रूप में अतृप्त होकर चोरी करता हुआ रूवे अतित्तो दुहिओ अणिस्सो॥ दुःखी और आश्रय-हीन हो जाता है।
९४.पत्थं हिदयाणिठं,पि भणमाणस्स सगणवासिस्स।
कड़गं व ओसहं तं,महुर-विवायं हवइ तस्स॥
अपने गणवासी (साथी) द्वारा कही हुई हितकर बात, भले ही वह मन को प्रिय न लगे, कटक औषध की भांति परिणाम में मधुर ही होती है।
९५.विस्ससणिज्जो माया,
व होइ पुज्जो गुरु व्व लोअस्स। सयणु व्व सच्चवाई,
पुरिसो सव्वस्स होइ पिओ॥
सत्यवादी मनुष्य माता की तरह विश्वसनीय, जनता के लिए गुरु की तरह पूज्य और स्वज़न की भांति सबको प्रिय होता है।
९६.सच्चम्मि तवो,
सच्चम्मि संजमो तह वसे सेसा वि गुणा। सच्चं णिबंधणं हि य,
गुणाणमुदधीव मच्छाणं॥
सत्य में तप, संयम और समस्त गुणों का वास होता है। जैसे समुद्र मत्स्यों का आश्रय स्थान है, वैसे ही सत्य समस्त गुणों का आश्रय स्थान है।
९७.जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पवड्ढई।
दोमास-कयं कज्ज, कोडीए वि न निठ्ठियं॥
जैसे लाभ होता है, वैसे लोभ होता है। लाभ से लोभ बढता है। दो माशा सोने से होने वाला कार्य करोड़ों स्वर्ण-मुद्राओं से भी पूरा नहीं होता।'
९८.सुवण्ण-रुप्पस्स उ पव्वया भवे,
(नमि राजर्षि ने इंद्र से कहा-) 'कदाचित् सोने और सिया हु केलास-समा असंखया। चांदी के कैलाश के समान असंख्य पर्वत हो जाएं, तो भी नरस्स लुद्धस्स न तेहि किंचि,
लोभी पुरुष को उनसे कुछ भी नहीं होता (तृप्ति नहीं इच्छा हु आगास-समा अणंतिया॥ होती), क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनन्त है। १. यह निष्कर्ष कपिल नामक व्यक्ति की तृष्णा के उतार-चढाव के परिणाम को सूचित करता है।