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आत्मा का दर्शन
४१२
खण्ड
-४
वच्चइ। तं दठूण जसा परुण्णा।
कविलेण पुच्छिया। ताए सिठं-जहा पिया ते एवंविहाए इड्ढीए णिगच्छियाइओ।
तेण भण्णति-कथं? सा भणति-जेण सो विज्जासंपण्णो। सो भणइ-अहंपि अहिज्जामि। सा भणइ-इहं तुमं मच्छरेण ण कोइ सिक्खवेति। वच्च सावत्थीए नयरीए। पिइमित्तो इदंदत्तो णाम माहणो। सो ते सिक्खावेहित्ति। सो गतो तस्स सगासं। तेण पुच्छितो-कओऽसि तुमं? तेण जहा- वत्तं कहियं।
से दरबार में जाता तो घोड़े पर सवार हो छत्र धारण करता था। एक दिन काश्यप की पत्नी यशा ने जब उसे देखा तो वह पति की स्मति से विह्वल हो रोने लगी।
कपिल ने रोने का कारण पूछा।
यशा ने कहा-एक समय था, जब तुम्हारे पिता भी इसी प्रकार छत्र धारण कर, घोड़े पर सवार हो राज्यसभा में जाया करते थे।
मां! वे राज्यसभा में क्यों जाते थे? वे विद्यासम्पन्न थे। मां! मैं भी पढूंगा।
पुत्र! इस नगरी में तुम्हें कोई नहीं पढ़ाएगा। यहां सभी ब्राह्मण ईर्ष्यालु हैं। तू श्रावस्ती नगरी में चला जा। वहां तुम्हारे पिता के परम मित्र इन्द्रदत्त नाम के ब्राह्मण हैं। वे तुम्हें विद्या देंगे। कपिल इन्द्रदत्त के पास विद्याध्ययन के लिए चला गया। इन्द्रदत्त ने पूछा-तुम कौन हो? कपिल ने सारा वृत्तांत सुना दिया।
वह इन्द्रदत्त के पास अध्ययन करने लगा। उसी नगरी में शालिभद्र नाम का श्रेष्ठी रहता था। उपाध्याय के कहने से श्रेष्ठी के घर कपिल के भोजन की व्यवस्था हो
सो तस्स सगासे अहिन्जिउं पयत्तो। तत्थ सालिभद्दो णाम इब्भो। सो से तेण उवज्झाएण, णेच्चतिय दवावितो। सो तत्थ जिमितो जिमितो अहिज्जइ। दासचेडी य तं परिवेसेइ। सो य हसणसीलो। तीए सद्धिं संपलग्यो।
गई।
तीए भण्णइ-तुमे मे पितो, ण य ते किंचिवि। णवरि मा रुसिज्जासि, पोत्तमुल्लणिमित्तं अहमण्णेहिं समं अच्छामि। इयरहाहं तुज्झ आणाभोज्जा। अण्णया दासीणं महो दुक्कइ। सा तेण समं णिविण्णिया। णिइं सा न लहइ। तेण पुच्छिया-कतो ते अरती? तीए भण्णति-दासीमहो उवदिठंतो। मम पत्तपुप्फाइमोल्लं णत्थि । सहीजणमज्झे विगुप्पिस्सं। ताहे सो अधितिं पगतो। ताए भण्णति-मा अद्धिति करेहि। एत्थ धणो णाम सिट्ठी। अप्पभाए चेव जे णं पढमं वद्धावेइ से दो सुवण्णए मासए देइ।
वहां एक दासी पुत्री उसे भोजन परोसा करती थी। कपिल हंसमुख स्वभाव वाला था। वह कभी-कभी उससे परिहास कर लेता था। धीरे-धीरे उनका संबंध गाढ़ हो गया।
दासी पुत्री ने कपिल से कहा-तुम मुझे प्रिय हो। पर तुम्हारे पास कुछ भी नहीं है। तुम बुरा न मानो तो एक बात कहूं। मैं वस्त्रों के लिए दूसरों के पास रह रही हूं, अन्यथा तुम्हारी आज्ञा में रहती।
एक दिन दासी-महोत्सव का अवसर आया। वह सोयी हुई थी। उस रात उसे नींद नहीं आ रही थी। कपिल ने पूछा-तुम उदास क्यों हो?
वह बोली-दासी-महोत्सव का समय आ गया है। पत्र, पुष्प आदि खरीदने के लिए मेरे पास फूटी कौड़ी भी नहीं है। सखियों के मध्य मैं उपहास की पात्र बनूंगी।
दासी पुत्री की बात सुनकर कपिल अधीर हो गया। दासी पुत्री ने कहा-तुम अधीर न बनो। इस नगर में धन नामक श्रेष्ठी रहता है। जो प्रभातकाल से पूर्व सबसे पहले