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प्रायोगिक दर्शन
४७. ते ही संधिमुहे गहीए
सकम्मुणा किच्च पावकारी ।
एवं पया पेच्च इहं च लोए
कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि ॥
४८. संसारमावन्न परस्स अट्ठा
साहारणं जं च करेइ कम्मं ।
कम्मस्स ते तस्स उ वेयकाले
न बंधवा बंधवयं उवेंति ॥
४९. वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते
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इममि लोए अटुवा परत्था ।
नेयाज्यं दठुमदठुमेव।।
५०. हिरणं सुवणं णि मुत्तं कंसं दूसं च वाहणं । कोसं वड्ढावइत्ताणं तओ गच्छसि खत्तिया ! ॥
दीप्पणट्ठे व अनंतमोहे
५१. सुवण्णरूप्पस्स उ पव्वया भवे
सिया हु केलाससमा असंखया । नरस्स लुखस्स न तेहिं किंचि
इच्छा हु आगाससमा अणंतिया ॥
५२. पुढवी साली जवा चेव हिरण्णं पसुभिस्सह । पडणं नागस्स इह विज्जा तवं चरे ॥
महर्षि कपिल
५३. तेणं कालेणं तेणं समएणं कोसंबीए णयरीए जितसत्तू राया। कासवो बंभणो चोइसविज्जाठाणपारगो । रायाणो बहुमतो । वित्ती से उवकप्पिया । तस्स जसा णाम भारिया । तेसिं पुत्तो कविलो णामा । कासवो तंमि कविले खुड्डलए चेव कालगतो।
ताहे तंमि मए तं पयं राइणा अण्णस्स मरुयगस्स दिण्णं । सो य आसेण छत्तेण य धरिज्जमाणेण
अ. १ : समत्व
जैसे सेंध लगाते हुए पकड़ा गया पापी चोर अपने कर्म से ही छेदा जाता है, उसी प्रकार इसलोक और परलोक में प्राणी अपने ही कृतकर्मों से छेदा जाता है। किए हुए कर्मों का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं होता।
संसारी प्राणी अपने बंधुजनों के लिए जो साधारण कर्म - इसका फल मुझे भी मिले और उनको भी ऐसा कर्म करता है, उस कर्म के फल भोग के समय वे बंधुजन बंधुता नहीं दिखाते - उसका भाग नहीं बंटाते ।
प्रमत्त मनुष्य इसलोक में अथवा परलोक में धन से त्राण नहीं पाता। अंधेरी गुफा में जिसका दीपक बुझ गया हो, उसकी भांति अनंत मोह वाला प्राणी पार ले जाने वाले मार्ग को देखकर भी नहीं देखता ।
ब्राह्मण वेष में समागत इन्द्र ने नमि राजर्षि से कहा- हे क्षत्रिय ! अभी तुम चांदी, सोना, मणि, मोती, कांस्य, वस्त्र, वाहन और भंडार की वृद्धि करो, फिर मुनि
बन जाना।
नाम राजर्षि-यदि कैलाश पर्वत के समान सोने और चांदी के असंख्य पर्वत हो जाएं, तो भी लोभी पुरुष को उनसे कुछ नहीं होता। क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनंत है।
पृथ्वी, अनाज, सोना और पशु-ये सब एक व्यक्ति की भी इच्छापूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं हैं। यह जानकर मनुष्य को तप - अपरिग्रह का आचरण करना चाहिए।
कौशंबी नगरी में जितशत्रु राजा राज्य करता था । उसके राज्य में रोहिणी, प्रज्ञप्ति आदि चौदह विद्यास्थानों का पारगामी काश्यप नाम का ब्राह्मण था । राजा उसका बहुमान करता था । उसकी जीविका निश्चित थी । उसकी पत्नी का नाम था यशा । पुत्र का नाम था कपिल । जब कपिल छोटा 'था, तभी काश्यप की मृत्यु हो गई।
राजा ने काश्यप की मृत्यु के बाद उसके स्थान पर दूसरे ब्राह्मण को नियुक्त कर दिया। वह ब्राह्मण जब घर