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आत्मा का दर्शन
४०. एत्तो विसिट्ठतरिका अहिंसा, जा सा
पुढवि-जल अगणि मारुय वणप्फइ बीज
हरित - जलचर थलचर खहचर तस थावरसव्वभूय खेमंकरी ।
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अपरिग्रहमूलक अहिंसा
४१. बुज्झेज्ज तिउट्ठेज्जा बंधणं परिजाणिया । किमाह बंधणं वीरे ? किं वा जाणं तिउट्टइ ॥
४२. चित्तमंतमचित्तं वा परिगिज्झ किसामवि । अण्णं वा अणुजाणा एवं दुक्खा ण मुच्चई ||
४३. सयं तिवात पाणे अदुवा अण्णेहिं घायंए । हतं वाणुजाणा वेरं वड्ढइ अप्पणो ॥
४४. जस्सिं कुले समुप्पण्णे जेहिं वा संवसे णरे । माती लुप्ती बाले अण्णमण्णेहिं मुच्छिए ।
४५. वित्तं सोयरिया चैव सव्वमेयं ण ताणइ । संधाति जीवितं चैव कम्मुणा उतिउट्टा ||
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४६. जे पावकम्मेहि धणं मणूसा पहाय ते पास पयट्टिए नरे
समाययन्ती अमई गहाय ।
खण्ड- ४
अहिंसा इनसे अधिक मूल्यवान् है। वह पृथ्वी, जल, अग्नि, हवा, वनस्पति, बीज, हरित, जलचर, स्थलचर, नभचर, त्रस, स्थावर - सभी प्राणियों के लिए क्षेमंकरीकल्याणकारी है। (पर्यावरण की सभी समस्याओं का समाधान इसमें निहित है | )
वेराणुबद्धा नरयं उवेंति ॥
सुधर्मा - बोधि को प्राप्त करो। बंधन को जानों और उसे तोड़ डालो। जंबू - महावीर ने बंधन किसे कहा है, जिसे जान लेने पर उसे तोड़ा जा सकता है ?
सुधर्मा - जो मनुष्य चेतन या अचेतन पदार्थों में किंचित् भी परिग्रह- बुद्धि / ममत्व रखता है, दूसरों के परिग्रह का अनुमोदन करता है, वह दुःख से मुक्त नहीं हो सकता।
परिग्रही मनुष्य प्राणियों का स्वयं हनन करता है, दूसरों से हनन करवाता है अथवा हनन करने वालों का अनुमोदन करता है, वह अपने वैर की परंपरा को बढ़ाता
है।
जो मनुष्य जिस कुल में उत्पन्न होता है और जिनके साथ संवास करता है, वह उनमें ममत्व बुद्धि रखता है। वे भी उसमें ममत्व बुद्धि रखते हैं। इस प्रकार परस्पर होने वाली मूर्च्छा से मूर्च्छित होकर वह बाल / अज्ञानी नष्ट होता रहता है।
समत्व और अपरिग्रह
धन और भाई-बहिन- ये सब त्राण नहीं हैं। जीवन बीत रहा है - इस सत्य को जान लेने पर मनुष्य कर्म के बंधन को तोड़ डालता है।
मनुष्य कुमति को स्वीकार कर पापकारी प्रवृत्तियों से धन का उपार्जन करते हैं, उन्हें देख। वे धन को छोड़कर मौत के मुंह में जाने को तैयार हैं। वे वैर (कर्म) हुए मरकर नरक में जाते हैं।