________________
प्रायोगिक दर्शन
जीव राई । एकहितं - असुगघरे ।
तेण उग्घाडिया। छुहाहतं पेच्छिता ! कूरं पमग्गितो जाम (समा) वत्तीय णत्थि । ताहे कुंमासा दिट्ठा । दउं लोहारघरं गतो, जा णियलाणि छिंदावेमि ।
ता साहत्थी जथा कुलं संभरितुमारा । एलुग विक्खंभतित्ता तेहिं पुरतो कएहिं हिदयब्भंतरतो रोवति । सामी य अतिगतो। ताए चिंतियं - एतं सामिस्स देमि मम एतं अधम्मफलं, भणति - भगवं ! कप्पति ?
४०९
सामिणा पाणी पसारितो । पंच दिव्वाणि । ते से बाला तदवत्था।' ताहे चेव ताणि नियलाणि फुट्टाणि । सोवन्निताणि कडग़ाणि णीउराणि य जाताणि ।
३८. एसा सा भगवती अहिंसा जा साभीयाणं पिव सरणं,
'तिसियाणं पिव सलिलं,
३९. समुज्झे व पोतवहणं,
दुहटियाणं व ओसहिबलं,
पक्खीणं पिव गयणं ।
खुहियाणं पिव असणं ॥
चउप्पयाणं व आसमपयं ।
अहिंसा का कल्याणकारी स्वरूप
अडवीमज्झे व सत्थगमणं ॥
अ. १ : समत्व
बेचारी वह जीवन को प्राप्त करे, यह सोच उसने कहा - चंदना तलघर में है।
सेठ ने तलघर का कपाट खोला। भूख से व्याकुल चंदना को देखा। रसोईघर में उसे बासी चावल भी दिखाई नहीं पड़े। केवल थोड़े से उबले हुए उड़द पड़े थे। वें लाकर चंदना को दिये और उसकी बेड़ियां तुड़वाने के लिए लुहार के घर गया।
१. पांच दिव्य सुगंधित जलवृष्टि, सुगंधित पुष्पवृष्टि, रत्नवृष्टि, दिव्यध्वनि, देवदुंदुभि ।
२. आश्रम प्राचीनकाल में शिकार का प्रचलन था। जिस किसी पशु को जहां कहीं देखते वहीं निशाना बना लेते। पर आश्रम में रहने वाले पशु अवध्य होते थे। उनको मारना निषिद्ध था । इसलिए आश्रम चतुष्पदों के लिए निरापद स्थल था। 'आश्रममृगोऽयं न हन्तव्यः - अभिज्ञान
चन्दना को अचानक इस बीच अपने अपहरण की बात याद आ गई। वह देहली के बीच में ही बैठी थी । सामने रखे उड़दों को देख मन ही मन रोने लगी। उसी समय भगवान महावीर वहां आ गए। वह सोचने लगी - यह मेरे किस पाप का फल है कि मैं ऐसी निकृष्ट वस्तु स्वामी को दे रही हूं ? उसने पूछा- भगवन् ! क्या ये उड़द आपके लिए कल्पनीय हैं ?
महावीर ने हाथ फैलाया । भिक्षा ग्रहण की। पांच दिव्य पदार्थ प्रकट हुए। चन्दना के सिर पर पुनः बाल आ गए। बेड़ियां स्वतः टूट गईं एवं हथकड़ियां सोने के कंगन और नूपुर के रूप में परिणत हो गईं।
अहिंसा प्राणियों के लिए वैसे ही आधारभूत है, जैसे डरे हुए मनुष्यों के लिए शरण, पक्षियों के लिए गगन, प्यासों के लिए जल, भूखों के लिए भोजन, समुद्र में डूबते हुए मनुष्यों के लिए नौका, चतुष्पदों के लिए आश्रम, रोगियों के लिए औषध और जंगल को पार करने के लिए सार्थगमन (संघबद्ध यात्रा)।
शाकुन्तलम् १ / १९'
३. सार्थ : प्राचीनकाल में यातायात के साधन नहीं के बराबर थे। एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में मध्य भयंकर जंगल थे । उन जंगलों में हिंस्र पशुओं एवं चोर लुटेरों का सदा भय रहता था। अकेले व्यक्ति के लिए उन जंगलों को पार करना सहज नहीं था । इसलिए लोग समूह बनाकर व्यापार के लिए जाते थे। वह समूह सार्थ कहलाता था ।