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________________ १६२ खण्ड-३ आत्मा का दर्शन ८. स्वकृतं नाम भोक्तव्यं, श्रद्धत्ते नेति यो जनः। श्रद्दधानोपि यो नैव, स्वात्मवीर्य समन्नयेत॥ ९. स कष्टाद् भयमाप्नोति, कष्टापाते विसीदति। आशज्ञ प्राप्य कष्टानां, स्वीकृतं.मार्गमुज्झति॥ (युग्मम्) जो मनुष्य इस बात में श्रद्धा नहीं रखता कि अपना किया हआ कर्म भगतना पड़ता है या इसमें श्रद्धा रखता हआ भी अपनी आत्मशक्ति को सत्कार्य में नहीं लगाता, वह कष्ट से कतराता है। वह कष्ट आ पड़ने पर खिन्न होता है और कष्टों के आने की आशंका से अपने स्वीकृत मार्ग को त्याग देता है। ॥ व्याख्या ॥ नास्तिक-भौतिकवादी व्यक्ति कष्ट सहने में समर्थ नहीं होते। किए हुए कर्मों को भोगना होता है-इसमें उनका विश्वास नहीं होता। इसलिए सत्कार्यों में उनकी अभिरुचि नहीं होती और न इसे वास्तविक भी मानते हैं। वे कष्टों में अधीर बन अपने सत्त्व को गंवा बैठते हैं। नास्तिकों में अध्यात्म का सर्वथा अभाव रहता है, यह एकांततः नहीं कह सकते। आस्तिकता की मात्रा उनमें दबी रहती है। समय पाकर किसी-किसी में वह उबुद्ध भी हो जाती है। बहुत से व्यक्ति सुख में नास्तिक होते हैं, और दुःख में आस्तिकता की ओर झुक जाते है। उन्हें यह लगने लगता है कि दुःख भी एक तत्त्व है। व्यक्ति जैसा करता है, उसे उसका फल भी भोगना होता है। ‘कृतस्य कर्मणो नूनं, परिणामो भविष्यति'-किए हुए कर्म का फल अवश्य भुगतना होता है।' मैं कर्म करने में स्वतंत्र हूं किंतु भोगने में परतंत्र हूं। फल अवश्य भुगतना पड़ता है। ये विचार आस्तिकता की ओर ले जानेवाले हैं। १०.मार्गोयं वीर्यहीनानां, वत्स! नैष हितावहः। धीरः कष्टमकष्टञ्च, समं कृत्वा हितं व्रजेत॥ वत्स! यह वीर्यहीन व्यक्तियों का मार्ग है। यह मुमुक्षु के लिए हितकर नहीं है। धीर पुरुष सुख-दुःख को समान मानकर अपने हित की ओर जाता है। ॥ व्याख्या ॥ द्वंद्वों (सुख-दुःख, लाभ-अलाभ, जीवन-मरण, मान-अपमान आदि) में अधीरता का होना यह प्रकट करता है कि अभी हम अविद्या और अज्ञान के घेरे में हैं। धीर व्यक्ति बाधाओं को चीरता हुआ निश्चित लक्ष्य की ओर बढ़ता रहता है। स्वहित के अतिरिक्त वह और कुछ नहीं देखता। मेघः प्राह ११.सुखास्वादाः समे जीवाः, सर्वे सन्ति प्रियायुषः। मेघ बोला-सब जीव सुख चाहते हैं। सबको जीवन प्रिय है। अनिच्छंतोऽसुखं यान्ति, न यान्ति सुखमीप्सितम्॥ वे दुःख नहीं चाहते, फिर भी वह मिलता है और वे सुख चाहते हैं, १२.कः कर्ता सुखदुःखानां, को भोक्ता कश्च घातकः। फिर भी वह नहीं मिलता। सुख-दुःख का कर्ता कौन है? भोक्ता सुखदो दुःखदः कोस्ति, स्याद्वादीश! प्रसाधि माम्॥ कौन है? कौन है इनका अंत करने वाला? सुख-दुःख देनेवाला (युग्मम्) कौन है? हे स्यादवादीश! आप मझे समाधान दें। | व्याख्या ॥ मेघ ने यहां चार प्रश्न प्रस्तुत किए हैं : १. सुख-दुःख का कर्ता कौन है? २. सुख-दुःख का भोक्ता कौन है? ३. सुख-दुःख का नाश करने वाला कौन है? ४. सुख-दुःख देने वाला कौन है ? ये चार प्रश्न प्रायः सभी दार्शनिकों के समाने आते रहे हैं। सभी दर्शन इन्हीं की परिक्रमा लिए चलते हैं। ऋषि
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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