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संबोधि
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अ. ३ : आत्मकर्तृत्ववाद ५. अकष्टासादितो मार्गः, कष्टापाते प्रणश्यति। कष्ट सहे बिना जो मार्ग मिलता है, वह कष्ट आ पड़ने पर । कण्टेनापादितो मार्गः, कष्टेष्वपि न नश्यति॥ विनष्ट हो जाता है और कष्ट सहकर जो मार्ग प्राप्त किया जाता
है, वह कष्टों के आ पड़ने पर भी विनष्ट नहीं होता।
॥ व्याख्या ॥ आस्तिक या अध्यात्मवादी व्यक्ति का दृष्टिकोण प्रारंभ से ही सत्य का स्पर्श किए चलता है। वह भौतिकवाद छ नहीं है, यह नहीं मानता। वह यह मानता है कि यह जीवन का साध्य नहीं है। सत्योन्मुखी दृष्टि के होने पर भौतिकवाद आत्मविकास का बाधक नहीं होता। अन्यथा व्यक्ति उसी के पीछे पागल बन जाता है, कष्टों से उकताकर धैर्य खो देता है और नये-नये दुःखों का अर्जन कर लेता है।
धार्मिक व्यक्ति दुःखों से कतराता नहीं। वह यह मानकर चलता है कि मैं हल्का-निर्भार हो रहा हूं। कष्टों में उसके धैर्य का बोध और अधिक सुदृढ़ होता है। 'विपदि धैर्यम्'-विपत्ति में धीरज का होना महान् पुरुषों का लक्षण है। सोने की शुद्धि के लिए अग्निस्नान अपेक्षित है, वैसे ही आत्म-शुद्धि के लिए कष्टाग्नि की अपेक्षा है। अध्यात्मवादी समागत कष्टों को केवल झेलता ही नहीं किंतु अनागत दुःखों को निमंत्रित भी करता है। वह साधना में निखार लाने के लिए विविध तपों का अवलंबन लेता है।
६. बलं वीर्य च संप्रेक्ष्य, श्रद्धामारोग्यमात्मनः। - क्षेत्रं कालञ्च विज्ञाय, तथात्मानं नियोजयेत्॥
अपने बल-शारीरिक सामर्थ्य, वीर्य-आत्मिक सामर्थ्य, श्रद्धा और आरोग्य को देखकर तथा क्षेत्र और काल को जानकर व्यक्ति उसी के अनुसार अपनी आत्मा को नियोजित करे।
" ७. तपस्तथा विधातव्यं, चित्तं नातं भजेद् यथा। तप वैसा ही करना चाहिए, जिससे मन आर्त्त-ध्यान में न : विवेकः प्रमुखो धर्मो, नाऽविवेको हि शुद्ध्यति॥ फंसे। क्योंकि सब धर्मों में विवेक प्रमुख धर्म है। विवेकशून्य
- व्यक्ति अपने को शुद्ध नहीं बना पाता।
॥ व्याख्या ॥ श्रमण परंपरा में तप की मुख्यता रही है। 'तप ब्रह्मा है। तपं स्व-धर्म में प्रवृत्ति है। तप इन्द्रिय और मन का वशीकरण है।
इन्द्रिय-विषय और कषाय (क्रोध, मान, माया और लोभ) का निग्रह कर स्वाध्याय और ध्यान के द्वारा आत्मसंपर्क साधने का नाम तप है। केवल आहार-त्याग का ही नाम तप नहीं है। उसके साथ विषय और कषायों का परित्याग भी अपेक्षित है। . जैन धर्म का झुकाव तप की ओर अधिक रहा है। भगवान् महावीर ने स्वयं विविध कठिन तपों का अवलंबन लिया था। वे सत्य-साक्षात्कार के लिए व्यग्र थे। उनकी दैहिक, मानसिक और आत्मिक क्षमता भी अनन्य थी। . बहुत से विद्वानों की यह धारणा है कि महात्मा बुद्ध की तरह भगवान् महावीर मध्यममार्गी नहीं थे। वे शारीरिक उत्पीड़न पर बल देते थे। किंतु वस्तुतः ऐसा नहीं है। भगवान महावीर का विवेकवाद मध्यम मार्ग का ही एक रूप है। उन्होंने अविवेक को खतरनाक कहा है। उनका दर्शन था-प्रत्येक क्रिया विवेकयुक्त हो। अविवेकपूर्ण तप उनकी दृष्टि में सम्यक् नहीं था। जिस तप के द्वारा चित्त क्लिष्ट होता है, भावना की विशुद्धि नहीं रहती, वस्तुतः वह केवल काय-क्लेश है।
वे कहते है-अपने शारीरिक, मानसिक और आत्मिक बल को पहले तोलो, अपनी क्षमता को क्रमशः बढ़ाओ, उसे वहीं तक सीमत मत रखो। जहां देखो कि तप से चित्त आर्त हो रहा है, वहीं रुक जाओ, चित्त को शांत करो और फिर आगे बढो। तप के प्रति यह उनका विवेकवाद था। (तप के विशेष विवरण के लिए देखें अध्याय १२)