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आत्मकर्तृत्ववाद
सुख और दुःख जीवन के सहचारी हैं। सुख प्रिय है और दुःख अप्रिय। दुःख नहीं चाहने पर भी होता है। कुछ उसमें खिन्न होते हैं और कुछ नहीं। ऐसा क्यों ? दुःख कर्म-कृत है। वह कर्म का भोग है। जो यह जानता है, वह न दूसरों पर इसका आरोपण करता है और न खिन्न ही होता है।
कर्म के बीज हैं-राग और द्वेष। ये दोनों मोह-कर्म की शाखाएं हैं। मोह को जीत लेने पर दोनों विजित हो जाते हैं। मोह के द्वारा होने वाली आत्म-विमूढता का इस अध्याय में स्पष्ट दिग्दर्शन है। मोह का उन्मूलन करने पर अन्य कर्मों की शक्ति स्वतः ही जर्जर हो जाती है। भगवान महावीर इसीलिए मेघ को उस निर्द्वन्द्व आनंद की प्राप्ति के लिए प्रोत्साहित करते हैं। वे कहते हैं-सारा संसार पौद्गलिक है-भौतिक है। सुख साबाध और क्षणिक है। आत्मा शाश्वत है। उसके लिए शाश्वत सुख ही अभीष्ट है। मोह से मूढ मनुष्य उस शाश्वत सुख से मुंह मोड़ बैठा है। वह अपने से अपरिचित है और अपरिचित है वास्तविक सुख से। मोह दुःख है और मोह-मुक्ति सुख। सुख-दुःख और कुछ नहीं, मोह-आसक्ति का विलय सुख है और उसकी अवस्थिति दुःख है।
मेघः प्राह १. कष्टानि सहमानोऽपि, घोरं नैको विषीदति।
एकस्तल्लेशतो दीनस्तत्त्ववित्! तत्त्वमत्र किम्॥
मेरो
मेघ बोला-एक व्यक्ति घोर कष्टों को सहन करता हुआ भी खिन्न नहीं होता और दूसरा व्यक्ति थोड़े से कष्ट में भी अधीर हो . जाता है। हे महान् तत्त्ववेत्ता! इसका क्या कारण है?
भगवान् प्राह
भगवान् ने कहा-जो व्यक्ति कष्ट को निश्चित रूप से अपने २. कष्टं यो मन्यते स्पष्टं, परिणाम स्वकर्मणः। किए हए कर्म का परिणाम मानता है और यह श्रद्धा रखता है कि ___ श्रद्धते यो विना भोगं, स्वकृतं नान्यथा भवेत्॥ किए हुए कर्म को भोगे बिना उससे मुक्ति नहीं मिल सकती और ३. स्वकृतं नाम भोक्तव्यं, अत्राऽमुत्र न संशयः। जो यह निश्चित रूप से जानता है कि अपने किए हुए इस कर्म इस आयातेष्वपि कष्टेषु, इति जानन् न खिद्यते॥ जन्म में या अगले जन्म में भुगतने ही पड़ते हैं, वह कष्ट के आ
(युग्मम्) पड़ने पर भी खिन्न नहीं होता।
४. कष्टान्यामंत्रयेत् सोऽत्र, कृतशुद्धयै यथाबलम्।
स्वीकृतस्याऽप्रच्यवार्थ, मोक्षमार्गस्य संततम्॥
कष्ट के रहस्य को जानने वाला व्यक्ति अपनी शक्ति के अनुसार कष्टों को आमंत्रित भी करता है। उसके दो हेतु हैं१. पूर्व-कृत कर्मों की शुद्धि-निर्जरा के लिए। २. स्वीकृत मोक्षमार्ग में सतत संलग्न रहने के लिए।