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________________ आत्मा का दर्शन २४८ खण्ड - ३ विकास के सहायक हैं। इसलिए ये धर्म हैं। किसी भी धर्म का इनके साथ विरोध नहीं है। विरोध का सबसे बड़ा कारण है, हम अपने धर्म की सीमा में घुस जाते हैं और उसी का चश्मा अपनी आंखों पर लगा लेते हैं। हम उससे भिन्न रंग को देखना नहीं चाहते । यदि अन्य धर्मों का निरीक्षण करें तो, समन्वय के तत्त्व इतने हैं कि उस सीमा को तोड़ने के लिए मजबूर होना पढ़ता है। साम्प्रदायिकता का पर्दा अधिक दिनों तक टिका रह नहीं सकता। शब्द-भेद के अतिरिक्त अर्थ की एकता अधिक निकट ले आती है। हम अधिक गहराई में न जाकर विकास की ओर बढ़ें और धर्म के साधनों का अभ्यास करें। २७. आत्मनः स्वप्रकाशाय, बन्धनस्य विमुक्तये । आनन्दाय मया शिष्य ! धर्मप्रवचनं कृतम् ॥ २८. शुभाशुभफलैरेभिः, प्रमादबहुल कर्मणां जीवः, बन्धनैर्ध्रुवम्। संसारमनुवर्तते ॥ कर्मणां बन्धनानि च । २९. शुभाशुभफलान्यत्र, छित्वा मोक्षमवाप्नोति, अप्रमत्तो हि संयतिः ॥ ३१. द्विमासमुनिपर्याय, भवनवासिदेवानां, ३०. एकमासिकपर्यायो, मुनिरात्मगुणे रतः । व्यन्तराणां च देवानां तेजोलेश्यां व्यतिव्रजेत् ॥ || व्याख्या ॥ धर्म अप्रमत्त अवस्था है और अधर्म प्रमत्त अवस्था । प्रमाद का स्वरूप इस प्रकार है : चार कषाय-क्रोध, मान, माया, लोभ । चार विकथा - स्त्रीकथा, देशकथा, राजकथा, भोजनकथा । पांच इन्द्रियां-स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र | इनके विषयों में आसक्ति, मन, वाणी और शरीर की इनमें प्रवृत्ति तथा निद्रा प्रमाद है और जो निवृत्ति है वह अप्रमाद है। अप्रमत्त आत्मा कर्म - बंधनों से मुक्त होकर शुद्ध स्वरूप में ठहरती है। प्रमादी आत्मा संसार में भ्रमण करती है । संसार दुःख है और मुक्ति सुख । धर्म की अपेक्षा इसलिए है कि उससे अनंत आनंद उपलब्ध होता है। यतिः । व्यतिव्रजेत् ॥ आत्मध्यानरतो तेजोलेश्यां ३२. त्रिमासमुनिपर्याय, आत्मध्यानरतो यतिः । देवासुरकुमाराणां, तेजोलेश्यां व्यतिव्रजेत ॥ ३३. चातुर्मासिकपर्याय, आत्मध्यानरतो यतिः । ज्योतिष्कानां ग्रहादीनां, तेजोलेश्यां व्यतिव्रजेत् ॥ शिष्य मेघ ! आत्मा के प्रकाश के लिए, बंधन की मुक्ति के लिए और आनंद के लिए मैंने धर्म का प्रवचन किया है। ३४. पञ्चमासिकपर्याय, आत्मध्यानरतो सूर्यचन्द्रमसोरेव, तेजोलेश्यां यतिः । व्यतिव्रजेत ॥ प्रमादी जीव शुभ-अशुभ फल वाले कर्मों के इन बंधनों से संसार में पर्यटन करता है। अप्रमत्त मुनि कर्मों के बंधनों और उनके शुभ-अशुभ फलों का छेदन कर मोक्ष को प्राप्त होता है। एक मास का दीक्षित आत्म-लीन मुनि व्यन्तर देवों के सुखों को लांघ जाता है, उनसे अधिक सुखी बन जाता है। दो मास का दीक्षित मुनि भवनपति (असुरवर्जित) देवों के सुखों को लांघ जाता है। तीन मास का दीक्षित आत्म-लीन मुनि असुरकुमार देवों के सुखों को लांघ जाता है। चार मास का दीक्षित आत्म-लीन मुनि ग्रह आदि ज्योतष्क देवों के सुखों को लांघ जाता है। पांच मास का दीक्षित आत्म-लीन मुनि ज्योतिष्क देवों के इंद्र-चांद और सूरज के सुखों को लांघ जाता है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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