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________________ संबोधि । २४९ अ. ९ : मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा ३५.षाण्मासिकपर्याय, आत्मध्यानरतो यतिः। छह मास का दीक्षित आत्म-लीन मुनि सौधर्म और ईशान सौधर्मेशानदेवानां, तेजोलेश्या व्यतिव्रजेत्॥ देवों के सुखों को लांघ जाता है। ३६. सप्तमासिकपर्याय, आत्मध्यानरतो यतिः। सात मास का दीक्षित आत्म-लीन मुनि सनत्कुमार और सनत्कुमारमाहेन्द्र-तेजोलेश्या व्यतिव्रजेत्॥ माहेन्द्र देवों के सुखों को लांघ जाता है। ३७. अष्टमासिकपर्याय, आत्मध्यानरतो यतिः। आठ मास का दीक्षित आत्म-लीन मुनि ब्रह्म और लान्तक ब्रह्मलान्तकदेवानां, तेजोलेश्यां व्यतिव्रजेत्॥ देवों के सुखों को लांघ जाता है। ३८.नवमासिकपर्याय, आत्मध्यानरतो यतिः। नौ मास का दीक्षित आत्म-लीन मुनि महाशुक्र और सहस्रार महाशुक्र-सहस्रार-तेजोलेश्यां व्यतिव्रजेत्॥ देवों के सुखों को लांघ जाता है। ३९.दशमासिकपर्याय, आत्मध्यानरतो यतिः। दस मास का दीक्षित आत्म-लीन मुनि आनत, प्राणत, आरण . आनतादच्युतं यावत्, तेजोलेश्यां व्यतिव्रजेत्॥ और अच्युत देवों के सुखों को लांघ जाता है। ४०. एकादशमासगत, आत्मध्यानरतो यतिः। ग्यारह मास का दीक्षित आत्म-लीन मुनि नव ग्रैवेयक देवों के ग्रैवेयकाणां देवानां, तेजोलेश्यां व्यतिव्रजेत्॥ सुखों को लांघ जाता है। ११.द्वादशमासपर्याय, आत्मध्यानरतो यतिः। बारह मास का दीक्षित आत्म-लीन मुनि पांच अनुत्तर विमान अनुत्तरोपपातिक-तेजोलेश्यां व्यतिव्रजेत्॥ देवों के सुखों को लांघ जाता है। ॥ व्याख्या ॥ , आत्मिक सुख की तुलना में पौद्गलिक सुख निकृष्ट होता है। पौद्गलिक सुख भी सब में समान नहीं होता। मनुष्यों की अपेक्षा देवताओं का पौद्गलिक सुख विशिष्ट होता है। देवताओं की चार श्रेणियां हैं : १. व्यंतर २. भवनपति ३. ज्योतिषी और ४. वैमानिक। व्यंतर देव आठ प्रकार के होते हैं : पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग और गंधर्व। • भवपति देव दस प्रकार के होते हैं : असुरकुमार, नागकुमार, तडित्कुमार, सुपर्णकुमार, वह्निकुमार, अनिलकुमार, स्तनितकुमार, उदधिकुमार, द्वीपकुमार और दिक्कुमार। ये देव भवनों-आवासों में रहते हैं, अतः इन्हें भवनपति देव कहा गया है। ये देव कुमार के समान सुन्दर, कोमल और ललित होते हैं। ये क्रीड़ा-परायण और तीव्र रागवाले होते हैं। . ज्योतिषी देव पांच प्रकार के होते हैं : चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारक। वैमानिक देव इनके दो भेद हैं-कल्पोपपन्न और कल्पातीत। कल्पोपपन्न वैमानिक देव बारह प्रकार के हैं। इनके नाम क्रमशः उनतीसवें श्लोक से बत्तीसवें श्लोक तक दिए गए हैं। ग्रैवेयक और अनुत्तर विमानवासी देव कल्पातीत होते हैं। ग्रैवेयक देवों के नौ और अनुत्तर देवों के पांच भेद हैं। आत्मिक सुख की तुलना पौद्गलिक सुखों से नहीं की जा सकती, क्योंकि वे क्षणिक, अशाश्वत और बाह्यवस्तु सापेक्ष होते हैं। पौद्गलिक सुख में भी तरतमता होती है। साधारण मनुष्य और असाधारण मनुष्य में विभेद देखा जाता है। देव-सुखों की तुलना में मनुष्य के सुख तुच्छ हैं। देवताओं में भी सर्वार्थसिद्ध देवों के सुख सामान्य देवताओं के सुखों से अनंतगुण अधिक हैं। लेकिन आत्मिक सुख की तुलना में सर्वार्थसिद्ध देवों के सुख भी अकिंचित्कर हैं।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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