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आत्मा का दर्शन
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खण्ड - ३
इन श्लोकों का प्रतिपाद्य यही है कि साधना ज्यों-ज्यों आगे बढ़ती है, मुनि के आनंद का भी उत्कर्ष होता जाता है। वास्तव में आत्मानंद की तुलना किसी पौद्गलिक पदार्थ से प्राप्त सुख या आनंद से नहीं की जा सकती, किंतु सामान्य बोध के लिए उसकी यह तुलना की गई है।
४२. ततः शुक्लः शुक्लजातिः, शुक्ललेश्यामधिष्ठितः । केवली परमानन्दः, सिद्धो बुद्धो विमुच्यते ॥
४३. यो जीवान् नैव जानाति, नाऽजीवानपि तत्त्वतः । जीवाऽजीवानजानन् सः, कथं ज्ञास्यति संयमम् ॥
४४. यो जीवानपि विजानाति,
वेत्त्यजीवानपि ध्रुवम् ।
सम्यग् ज्ञास्यति संयमम् ॥
जीवाऽजीवान् विजानन् सः,
४५. यदा जीवानजीवांश्च
द्वावप्येतौ विबुध्यते । तदा गतिं बहुविधां जानाति सर्वदेहिनाम् ॥ ४६. यदा गतिं बहुविधां जानाति सर्वदेहिनाम् । पुण्यपापे बन्धमोक्षौ, तदा जानाति तत्त्वतः ॥
४७. पुण्यपापे बंधमोक्षौ यदा जानाति तत्त्वतः ।
तदा 'विरज्यते भोगाद, दिव्यात् मानुषकात् यथा ॥
४८. यदा विरज्यते भोगात्, दिव्यात् मानुषकात् तथा । तदा त्यजति संयोगं, बाह्यमाभ्यन्तरं द्विधा ॥
४९. यदा त्यजति संयोगं, बाह्यमाभ्यन्तरं द्विधा । तदा मुनिपदं प्राप्य, धर्मं स्पृशति संवरम् ॥
५०. यदा मुनिपदं प्राप्य, धर्मं स्पृशति तदा धूतं कर्मरजः, भवत्यबोधिना
संवरम् ।
कृतम् ॥
५९. यदा धूतं कर्मरजः भवत्यबोधिना कृतम् । तदा सर्वत्रगं ज्ञानं दर्शनं चाऽभिगच्छति ॥
उसके बाद वह शुक्ल और शुक्लजाति वाला मुनि शुक्ल लेश्या को प्राप्त होकर केवली होता है, परम आनंद में मग्न, सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो जाता है।
जो तत्त्वतः जीव को नहीं जानता, अजीव को भी नहीं जानता, वह जीव - अजीव - दोनों को नहीं जानने वाला संयम को कैसे जानेगा ?
जो जीव को जानता है, अजीव को भी जानता है, वह जीवअजीव - दोनों को जानने वाला संयम को सम्यग् प्रकार से जान लेगा।
जो जीव और अजीव - दोनों को जानता है, वह जीवों की नाना प्रकार की गतियों को जानता है।
जब मनुष्य जीवों की बहुविध गतियों को जान लेता है तब वह तत्त्वतः पुण्य, पाप, बंध और मोक्ष को भी जान लेता है।
जब मनुष्य पुण्य, पाप, बंध और मोक्ष को जान लेता है, तब मनुष्यों और देवों के जो भी भोग हैं, उनसे विरक्त हो जाता है।
जब मनुष्य दैविक और मानुषिक भोगों से विरक्त हो जाता है, तब वह बाह्य और आभ्यन्तर- दोनों प्रकार के संयोगों को त्याग देता है।
जब मनुष्य बाह्य और आभ्यन्तर - दोनों प्रकार के संयोगों को त्याग देता है, तब वह मुनिपद को प्राप्त कर संवर धर्म का स्पर्श करता है।
जब मनुष्य मुनिपद को प्राप्त कर संवर धर्म का स्पर्श करता है तब वह अबोध द्वारा संचित कर्म-रज को प्रकंपित कर देता है।
जब मनुष्य अबोधि द्वारा संचित कर्मरज को प्रकंपित कर देता है तब वह सर्वत्र - गामी ज्ञान और दर्शन केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है।