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संबोधि
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५२. यदा सर्वत्रगं ज्ञानं, दर्शनं चाभिगच्छति । तदा लोकमलोकञ्च जिनो जानाति केवली ॥
केवली ।
५३. यदा लोकमलोकं च, जिनो जानाति आयुषोऽन्ते निरुन्धानः, योगान् कृत्वा रजः क्षयम् ॥ ५४. अनन्तामचलां पुण्यां सिद्धिं गच्छति नीरजाः । तदा लोकमस्तकस्थः सिद्धो भवति शाश्वतः ॥ ( युग्मम् )
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अ. ९
मिथ्या सम्यग् ज्ञान-मीमांसा
जब मनुष्य सर्वत्र गामी ज्ञान और दर्शन केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है तब वह जिन और केवली होकर लोक अलोक को जान लेता है।
केवलज्ञान की उपलब्धि होने पर जिन अथवा केवली लोक और अलोक को जान लेता है। वह आयु के अंत में मन, वचन और काय - तीनों योगों का निरोध कर, कर्मरज को सर्वथा क्षीण कर अनंत, अचल और कल्याणकारी सिद्धिगति को प्राप्त कर, शाश्वत सिद्ध होकर लोक के अग्रभाग में अवस्थित हो जाता है।
|| व्याख्या ||
साधना का प्रथम चरण संयम है और अंतिम भी संयम है जितने भी साधक हैं संयम उनके लिए अनिवार्य है, इसे यों भी कह सकते हैं कि साधना का चिंतन और उसकी क्रियान्विति संयम से अनुबंध है। संयम के अभाव में जीवन का कोई भी क्षेत्र सुखद, सफल नहीं होता। असंयम पारिवारिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक आदि सभी क्षेत्रों के लिए अभिशाप है शारीरिक दृष्टि से भी असंयमी व्यक्ति स्वस्थ नहीं होता। स्वास्थ्य भी संयम सापेक्ष है। इसलिए यह उद्घोष मुखर हुआ कि 'संयमः खलु जीवनम्' संयम ही जीवन है। इसका विपरीत असंयम मृत्यु है। संयम का अर्थ है-निरोध । इसमें प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों का समन्वय है-असत् प्रवृत्ति का निरोध और सत् मैं प्रवर्तन सत् और असत् दोनों का संयम चेतना का पूर्ण विकास है। प्रस्तुत श्लोकों में इसी का दिग्दर्शन है संयम के माध्यम से ही चेतना का विकास होता है। संयम पूर्ण विकास से पूर्व साधन के रूप में प्रयुक्त होता है और विकास की पूर्णता में साध्य बन जाता है संयम की साधना के लिए जीव और अजीव के बोध की भी अपेक्षा है। इन्हें नहीं जाननेवाला संयम को कैसे जान सकेगा? किसका संयम करेगा? कौन करेगा? क्यों करेगा?
पुरुष अलग है प्रकृति अलग है, किन्तु दोनों के अनुबंध से संसार होता है। वैसे ही आत्मा और कर्म दोनों भिन्नभिन्न होते हुए भी परस्पर में गहरे गूंधे हुए हैं जब तक ये दोनों विभक्त नहीं होते तब तक संसार का प्रवाह, दुःखसुख का चक्र, अधोगमन- ऊर्ध्वगमन की यात्रा निराबाध चलती रहती है। प्रकृति कर्म के इस प्रवाह का अवरोध किए बिमा सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति कठिन है। अजीव की माया को समझना भी बहुत दुरूह है। अनेक ज्ञानी भी कर्म - जाल से सहजतया मुक्त नहीं हो सकते। 'विचित्रा कर्मणां गतिः' कर्म की गति बड़ी विचित्र है। कर्म का उदय उन्हें भी कहां से कहां ले जाकर छोड़ देता है। असंख्य उदाहरणों से यह संसार भरा है। आत्मा अनेक उतार-चढ़ाव, सुख-दुःखों की अनुभूति इसी के प्रभाव से करती है। जीव और अजीव की इस संस्कृति की समझ आवश्यक है। संयम की साधना में इनका बोध करणीय है।
जीव और अजीव के बोध से ही जीवों की विविध गतियों का बोध होता है कौन जीव कहां जाता है? कैसे जाता है ? क्यों जाता है ? तिर्यंच गति, मनुष्य गति, नरक गति और देव गति के निमित्त क्या-क्या बनते हैं ? इसके बोध से पुण्य और पाप का ज्ञान होता है। पुण्य शुभ कर्म है और पाप अशुभ कर्म पुण्य व्यक्ति को उत्कर्ष के पथ पर ले जाता है और पाप अपकर्ष के पथ पर पुण्य की महिमा से मंडित व्यक्ति पूज्य, आदेय, श्लाघ्य, कीर्तिमान बनता है और पापोदय के कारण हीन, अश्लाघ्य आदि। ऐसे अनेक अभिनयों के पीछे पुण्य पाप की छाया है पुण्य और पाप के साथ उसके बंधन और मुक्ति की क्रिया भी जुड़ी है। जब संसार की विचित्रता सामने आती है तब मन सहज ही सांसारिक विषय भोगों से उद्विग्न हो जाता है, भोगों से विरक्ति हो जाती है भोग सिर्फ रोग ही नहीं देते हैं अपितु दुःख भी देते हैं। मन की विरक्त दशा में सभी प्रकार के मानवीय, दैवीय भोग क्षुद्रतम प्रतीत होने लगते हैं। बाहर से वितृष्ण मन अंतरंग सुख में निमग्न होने लगता है। सांसारिक संबंध भी मिथ्या दिखाई देने लगते हैं। मन संयोगों से