________________
आत्मा का दर्शन
२५२
खण्ड - ३
मुक्त होने के लिए तरसने लगता है जब जक संयोगों के प्रति चित्त आकृष्ट रहता है तब तक परमतत्त्व से भी प्रीति नहीं होती। बाहर का राग भीतर से विराग पैदा करता है और भीतर का राग बाहर से विराग पैदा करता है।
संसार संयोगों की देन है। संयोग कर्म हेतुक हैं। कर्म से पुनः कर्म का ही अनुबंध होता है। कर्म आंतरिक संयोग है। आंतरिक संयोगों के बने रहने पर बाह्य संयोगों के त्याग का वास्तविक अर्थ नहीं रहता। वस्तुतः आंतरिक संयोगों को ही त्यागना है। अन्यथा त्याग कर भी कुछ नहीं त्यागा जाता है। मन ममत्व की परिक्रमा करता ही रहता है। इसे सम्यक् समझ कर ही साधक बाह्य और आभ्यन्तरिक दोनों संयोगों से मुक्त होने के लिए तत्पर होता है। यह संयोग मुक्ति का संकल्प उसे मुनिपद पर आरूढ़ करता है। वह सबको संन्यास दे देता है। सही माने में अनगारता राग, द्वेष, काम, क्रोध, मोह आदि वृत्तियों व बाह्य रूप से सांसारिक वृत्तियों के परित्याग से ही सिद्ध होती है। संन्यस्त व्यक्ति-मुनि ही संवर धर्म का स्पर्श करता है।
संवर विजातीय तत्त्व का अवरोधक है। आत्मा के असंख्य द्वार खुले हैं, जिनसे सतत कर्म तत्त्व का प्रवाह गतिमान रहता है। कर्म पौद्गलिक विजातीय हैं। जब तक इसके द्वार को रोका बंद नहीं किया जाता है तब तक आत्मा का भव भ्रमण चलता रहता है। जब साधक आत्मा के साथ एकत्व स्थापित करने लगता है, एकत्व घनीभूत होने लगता है तब उत्कृष्ट संवर की आराधना प्रारंभ हो जाती है। खुले हुए द्वार सहज ही अवरुद्ध होने लगते हैं, फलतः अबोधि- अज्ञाम द्वारा अर्जित अनंत जन्मों के कलुषित कर्म प्रकंपित होने लगते हैं पंछी जैसे अपने शरीर पर लगे रजकणों को पंखों को फड़फड़ाकर झटका देता है, वैसे ही साधना के द्वारा साधक के कर्म रज प्रकंपित होकर आत्मा से विलग हो जाते हैं। कर्मों का अलगाव ही आत्मा के सौन्दर्य को प्रकट कर देता हैं। अनंत जन्मों का तम प्रकाश की एक किरण से विलीन हो जाता है। कर्म के क्षीण होते ही ज्ञान दर्शन जो आत्मा का स्वभाव है वह व्यक्त हो जाता है। यह ज्ञान शास्त्रीय बौद्धिक ज्ञान से भिन्न है। इसमें किसी माध्यम की अपेक्षा नहीं रहती है, न इसमें निकटता या दूरी का व्यवधान रहता है। यह ज्ञान अमर्यादित - असीम होता है, विश्व-लोक के इस छोर और उस छोर की परिधि भी वहां नहीं रहती । वस्तु के अनंत धर्मों का अवलोकन अविलंब हो जाता है। इसे केवलज्ञान कहते हैं । यही कैवल्य अवस्था है। ज्ञान और दर्शन - ये दो शब्द सिर्फ वस्तु के बोध की अवस्था मात्र है। दर्शन में वस्तु का सामान्य बोध होता है और ज्ञान में वस्तु का अनंत धर्मों-पहलुओं का ज्ञान होता है। एक सामान्य जानकारी देता है और एक विशिष्ट । इस ज्ञान के अधिकारी व्यक्ति को जिन - केवल कहते हैं। लोक व अलोक के दर्शन में केवली ही सक्षम होते हैं।
जिन या केवली जब अपने स्थूल शरीर का त्याग करते हैं तब कुछ ही क्षणों में मन, वाणी व देह के योगों यानी .. प्रवृत्ति का निरोध कर मेरु पर्वत की भांति अचल अवस्था को प्राप्त कर समस्त स्थूल सूक्ष्म शरीरों से मुक्त होकर सिद्ध अवस्था को प्राप्त कर सिद्धत्व का वरण कर लेते हैं। आवागमन से मुक्त हो जाते हैं।
मुक्तात्मा सिद्धत्व को प्राप्त आत्मा का अवस्थान लोक का अग्रभाग है। इससे आगे न गति है और न स्थिति है। आकाश के दो विभाग हैं एक लोकाकाश और दूसरा अलोकाकाश अलोक में आकाश के अतिरिक्त कोई द्रव्य नहीं है। लोक में ही गति, स्थिति, जीव और पुद्गल है। गति और स्थिति द्रव्य के अभाव में जीव और पुद्गलों का अलोकाकाश में अवस्थिति नहीं होती। लोकाकाश और अलोकाकाश की मर्यादा इन्हीं के कारण से होती है। सिद्ध शुद्धात्मा है। स्थूल आदि शरीरों के छूटने पर आत्मा एक समय में लोक के अग्रभाग में अवस्थित हो जाता है। यह आत्मा के पूर्ण मुक्त होने की अवस्था है। साधना की सिद्धि का यही अंतिम मुकाम है।
५५. अभूवंश्च भविष्यन्ति सुव्रता धर्मचारिणः । एतान् गुणानुदाहुस्ते, साधकाय शिवङ्करान् ॥
जो सुव्रत और धार्मिक हुए हैं और होंगे, उन्होंने साधक के लिए कल्याण करने वाले इन्हीं गुणों का निरूपण किया है।
इति आचार्यमहाप्रज्ञविरचिते संबोधिप्रकरणे मिथ्या सम्यग्ज्ञान-मीमांसानामा नवमोऽध्यायः ।