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________________ संबोधि २४७ अ. ९ : मिथ्या-सम्यग्-ज्ञान-मीमांसा १. ज्ञान-प्राप्ति-इससे बौद्धिक विकास के साथ-साथ सत्-असत् का विवेक भी जागृत होता है। २. मानसिक एकाग्रता-इससे लक्ष्य-प्रपप्ति की ओर सहज गति करने की क्षमता बढ़ती है, अपने आप पर नियंत्रण और धैर्य का विकास होता है। ३. धर्माचरण-ज्ञान की प्राप्ति श्रेय के प्रति प्रस्थान के लिए सहज-सरल मार्ग प्रस्तुत करती है। आगमों में कहा है 'अन्नाणी किं काही, किंवा नाहीइ छेयपावगं' अज्ञानी क्या करेगा? वह श्रेय और पाप को कैसे जानेगा? । धर्महीन व्यक्ति न वर्तमान को सुखी बना सकता है और न अनागत को। ४. दूसरों को धर्म में प्रेरित करना-ज्ञानी व्यक्ति ही विभिन्न व्यक्तियों को समझाकर धर्म में स्थापित कर सकते हैं। जो स्वयं आचारवान् नहीं होता वह दूसरों को आचार में स्थापित नहीं कर सकता। शिक्षा-प्राप्ति के इन चार उद्देश्यों से जीवन का सर्वांगीण विकास होता है। एकांगी विकास उपादेय नहीं हो सकता। २५.प्राणिनामुह्यमानानां, जरामरणवेगतः। जरा और मरण के प्रवाह में बहने वाले जीवों के लिए धर्म धर्मो द्वीपं प्रतिष्ठा च, गतिः शरणमुत्तमम्॥ द्वीप, प्रतिष्ठा, गति और उत्तम शरण है। ॥ व्याख्या ॥ 'वत्थु सभावो धम्मो' वस्तु का स्वभाव-स्वरूप धर्म है। स्वभाव व्यक्ति को कभी नहीं छोड़ता। मनुष्य स्वभाव को विस्मृत कर सकता है, किंतु स्वभाव मनुष्य को नहीं। उसके अतिरिक्त त्राण, शरण, गति और द्वीप क्या हो सकता है ? विभाव कभी शरण नहीं बनता। मनुष्य यह जानता हुआ भी स्वभाव की ओर गति नहीं करता। धर्म की शरण में 'आओ 'धम्म सरणं गच्छामि' 'धम्म सरणं पवज्जामि' मामेकं सरणं सरणं व्रज' यह उद्घोष समस्त धर्म प्रवर्तकों द्वारा हुआ है। उन्होंने प्रत्यक्ष अनुभव किया है कि धर्म को छोड़ कर ही प्राणी अनेक आपदाएं वरण करता है। शांति का आधार धर्म है, इसलिए यहां कहा है कि स्वभाव का अनुसंधान करो। ... जरा और मृत्यु के महा प्रवाह में बहते हुए प्राणियों की रक्षा का आधार-स्तंभ यही है। उत्पन्न होना, जीर्ण होना और समाप्त होना-एक भी वस्तु इस नियम से वंचित नहीं है। परिवर्तन का चक्र सब पर चलता है। धर्म अपरिवर्तनीय है, शाश्वतिक है। यही परिवर्तन के चक्रव्यूह से व्यक्ति को मुक्त कर सकता है। २६.दुर्गतौ । प्रपतज्जन्तोर्धारणाद् धर्म उच्यते। जो दुर्गति में पड़ते हुए जीव को धारण करता है, वह धर्म धर्मेणासौ धृतौ ह्यात्मा, स्वरूपमधिगच्छति॥ कहलाता है। अपने स्वरूप को वही प्राप्त होता है, जिसकी आत्मा धर्म के द्वारा धृत है। ॥ व्याख्या ॥ धर्म आत्म-विकास का साधन है। धर्म वैयक्तिक है; सामूहिक नहीं। समूह व्यक्ति में धर्म-भावना प्रवाहित करता है। इसलिए वह अनुपादेय नहीं होता। लेकिन जब वह व्यक्ति की स्वतंत्र-चेतना का हरण कर लेता है, तब वह पवित्र नहीं रहता। कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसलिए कहा था कि 'धर्म को पकड़ो, धर्मों को नहीं। धर्म कभी अहित नहीं करता। धर्मों को पकड़ने पर अहित होता है। धर्मों का यहां अर्थ है साम्प्रदायिकता। धर्म से वैमनस्य, विरोध, विभेद आदि पैदा नहीं हुए, ये साम्प्रदायिकता से बड़े हैं। आज धर्म को मिटाने की अपेक्षा नहीं है। मिटाना है साम्प्रदायिकता को। धर्म कभी मिटता नहीं है। वह सदा अमर है। 'अमर रहेगा, धर्म हमारा'-धर्म सनातन है। धर्म की वास्तविकता में विरोध नहीं है, विरोध है उसका गलत प्रयोग करने में। र धर्म की वास्तविकता है-ज्ञान का पूर्ण विकास, श्रद्धा का पूर्ण विकास, स्व (आत्म)-भाव का पूर्ण विकास और आत्मशांति का पूर्ण विकास। अहिंसा, सत्य, कषाय-विजय, इंद्रिय-संयम, मनो-निग्रह, राग-द्वेष-विलय आदि आत्म
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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