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आत्मा का दर्शन
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खण्ड-३
३०. उपकारापकारौ च, विपाकं वचनं तथा।
कुरुष्व धर्ममालम्ब्य, क्षमां पञ्चावलम्बनाम्॥
पांच कारणों से मुझे क्षमा का सेवन करना चाहिए वे पांच ये हैं-१. इसने मेरा उपकार किया है इसलिए इसके कथन या प्रवृत्ति पर मुझे क्रोध नहीं करना चाहिए। २. क्षमा नहीं रखने से अर्थात् क्रोध करने से मेरी आत्मा का अपकार-अहित होता है। ३. क्रोध का परिणाम बड़ा दुःखद होता है। ४. आगम की वाणी है कि क्रोध नहीं करना चाहिए। ५. क्षमा मेरा धर्म है।
३१.आर्जवं वपुषो वाचो, मनसः सत्यमुच्यते।
असंवादयोगश्च, तत्र स्थापय मानसम्॥
काया, वचन और मन की जो सरलता है, वह सत्य है। कथनी और करनी की जो समानता है, वह सत्य है। उस सत्य में तू मन को रमा।
॥ व्याख्या ॥
'मनस्येकं वचस्येकं, कर्मण्येकं महात्मनाम्।
मनस्यन्यद् वचस्यन्यत, कर्मण्यन्यद् दुरात्मनाम्॥' -मन, वचन और कर्म में एकरूपता-यह महान् पुरुषों का लक्षण है, और भिन्नता साधारण पुरुषों का लक्षण है। साधक के लिए साधना का महान् सूत्र है कि वह जैसा कहे, वैसा करे और जैसा करे, वैसा ही कहे। अनेकरूपता साधक का धर्म नहीं होता। जिसमें भीतर और बाहर का एकत्व नहीं है, वह साधना के योग्य नहीं है।
३२.अश्रद्धानं प्रवचने, परलाभस्य तर्कणम्।
आशंसनं च कामानां, स्नानादिप्रार्थनं तथा॥
मुनि के लिए चार दुःख-शय्याएं हैं-१. निग्रंथ प्रवचन में अश्रद्धा करना। २. दूसरे श्रमणों द्वारा लाई हुई भिक्षा की चाह रखना। ३. काम-भोगों की इच्छा करना। ४. स्नान आदि की अभिलाषा करना। इन कारणों से साधु का चित्त अस्थिर बनता है और उसके संयम की हानि होती है, अतः निग्रंथ के लिए ये चार दुःख-शय्याएं हैं।
३३.एतैश्च हेतुभिश्चित्तं, उच्चावचं प्रधारयन्। निर्ग्रन्थो घातमाप्नोति, दुःखशय्यां व्रजत्यपि॥
(युग्मम्)
३४.श्रद्धाशीलः प्रवचने, स्वलाभे तोषमाश्रितः।। मुनि के लिए चार सुख-शय्याएं हैं- १. निग्रंथ प्रवचन में अनाशंसा च कामानां, स्नानाद्यप्रार्थनं तथा॥ श्रद्धा करना। २. भिक्षा में जो वस्तुएं प्राप्त हों, उन्हीं से संतुष्ट
रहना। ३. काम-भोगों की इच्छा न करना। ४. स्नान आदि की ३५. एतैश्च हेतुभूभिश्चित्तं, उच्चावचमधारयन्। इच्छा न करना। इन कारणों से साधु का चित्त स्थिर बनता है और निग्रंथो मुक्तिमाप्नोति, सुखशय्यां व्रजत्यपि॥ वह मुक्ति को प्राप्त होता है, अतः निग्रंथ के लिए ये चार सुख
(युग्मम्) शय्याएं हैं।
॥ व्याख्या ॥ शय्या का अर्थ है-आश्रय-स्थान। सुख और दुःख के चार-चार आश्रय-स्थान हैं। मुनि का मन संयम से विचलित होता है। उसके मुख्य कारण चार हैं : (१) संयम के प्रति अश्रद्धा, (२) श्रम से जी चुराना, (३) विषयों में आसक्ति, (४) शृंगार की भावना। ये चार दुःख के आश्रय-स्थान हैं।
मुनि के संयम में स्थिर रहने के चार कारण हैं : (१) संयम के प्रति श्रद्धा, (२) श्रमशीलता, (३) विषय-विरक्ति, (४) शृंगार-वर्जन। ये चार सुख के आश्रय-स्थान हैं।