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________________ संबोधि ३८३ अ. १६ : मनःप्रसाद ३६.दुष्टा व्यद्ग्राहिता मूढा, दुःसंज्ञाप्या भवन्त्यमी। तीन प्रकार के व्यक्ति दुःसंज्ञाप्य' होते हैं-दुष्ट, सुसंज्ञाप्या भवन्त्यन्ये, विपरीता इतो जनाः॥ व्युग्राहित–दुराग्रही और मूढ। इनसे भिन्न प्रकार के व्यक्ति सुसंज्ञाप्य होते हैं। ॥ व्याख्या ॥ द्वेष करने वाले, दुराग्रही और मोहग्रस्त-ये तीन प्रकार के व्यक्ति सद्ज्ञान (शिक्षा) के लिए पात्र नहीं हैं। शिक्षा या सद्बुद्धि का अंकुर वहीं पल्लवित हो सकता है जहां अनाग्रह, नम्रता और सरलता है। द्विष्ट-चित्त वाला व्यक्ति अपने मन में ईर्ष्या, क्रोध, अभिमान, आग्रह आदि का पोषण करता है। वह अज्ञान और मोह से घिरा रहता है। मूढ़ मनुष्य को हिताहित का विवेक नहीं होता। भर्तृहरि ने मूढ़ और दुराग्रही के लिए यहां तक कहा है कि उन्हें ब्रह्मा भी रंजित नहीं कर सकते-'अज्ञ व्यक्ति को समझाना सरल है। विद्वान् को समझाना सरलतम है किन्तु जो दोनों के बीच के अर्धपंडित हैं उन्हें ब्रह्मा भी नहीं समझा सकता।' भगवान् महावीर ने शिक्षा के योग्य व्यक्ति के लिए कुछ विशेष बातों की ओर संकेत किया है। वे हैं-'नम्रता, सहिष्णुता, दमितेन्द्रियता, अनाग्रह-भाव, सत्यरतता, क्रोधोपशांति, क्षमा, सद्भाव और वाक्-संयम। ३७. पूर्व कुग्राहिताः केचिद्, बालाः पण्डितमानिनः। नेच्छन्ति कारणं श्रोतुं, द्वीपजाता यथा नराः॥ जो पूर्वाग्रह रखते हैं और जो अज्ञानी होने पर भी अपने को पंडित मानते हैं, वे अशिष्ट पुरुषों की भांति बोधि के कारण को सुनना नहीं चाहते। ॥ व्याख्या ॥ विकास के क्षेत्र में पूर्व-मान्यता या पूर्वाग्रह का स्थान नहीं है। पूर्वाग्रही व्यक्ति के लिए सत्य-स्वीकृति का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है। उसे वही सत्य लगता है जो अपनी मान्यता पर खरा उतरता है। ऐसे व्यक्ति के लिए किसी ने कहा है-ये कुआं मेरे पिता का बनाया हुआ है। मैं इसी का पानी पीऊंगा। भले इसमें पानी खारा ही है। वे सम्यग् ज्ञान का उपदेश सुनना नहीं चाहते। अगर सुन भी लेते हैं तो उनके दिमाग में उसे प्रवेश नहीं मिल सकता। क्योंकि उनका दिमाग पहले से भरा रहता है। जब हम अपने दिमाग को रिक्त कर लेते हैं तब उसमें किसी अन्य शिक्षा का प्रवेश हो सकता है। भगवान् महावीर ने मेघ से कहा-मेघ! पंडित-मन्यता और पूर्वाग्रह-इन दोनों से मुक्त होने पर ही सत्य का मार्ग अनावृत हो सकता है। .. एक बार दो चींटियां आपस में मिलीं। एक नमक के पहाड़ पर रहती थी और दूसरी चीनी के पहाड़ पर। चीनी के पहाड़ पर रहने वाली चींटी ने दूसरी चींटी को आमंत्रित किया। नमक के पहाड़ पर रहने वाली चींटी वहां गई और एक वाना चीनी का मुंह में लिया। उसने थूकते हुए कहा-'अरे, यह भी खारा है।' वहां की निवासिनी चींटी ने कहा-'बहन! चीनी मीठी होती है। वह कभी खारी नहीं होती।' आगन्तुक चींटी ने कहा-'मेरा मुंह तो खारा हो गया है। मैं कैसे मानूं कि चीनी मीठी होती है!' यह सुनकर वह असमंजस में पड़ गई। उसने आगन्तुक चींटी का मुंह देखा। उसमें नमक की एक हली थी। उसने कहा-'बहन! नमक को छोड़े बिना मुंह मीठा कैसे होगा?' यह संस्कारों के आग्रह की कहानी है। आग्रह को छोड़े बिना सत्य प्राप्त नहीं किया जा सकता। ३८.उपदेशमिदं श्रुत्वा, प्रसन्नात्मा महामना। मेघः प्रसन्नया वाचा, तुष्टुवे परमेष्ठिनम्॥ महामना मेघ यह उपदेश सुन बहुत प्रसन्न हुआ और प्रांजल वाणी से भगवान् महावीर की स्तुति करने लगा। १. जिन समझाया न जा सकें।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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