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________________ आत्मा का दर्शन ३८४ खण्ड-३ ॥ व्याख्या ॥ मेघ की जागृत आत्मा आराध्य के प्रति कृतज्ञ हो गई। मन का मैल धुल गया, वाणी विशुद्ध हो गई और शरीर शांत हो गया। मन अनंत. श्रद्धा से भगवान् की आत्मा में विलीन हो गया। वाणी में अनंत श्रद्धा है और शरीर श्रद्धा से नत है। आत्मा की श्रद्धा शब्दों का चोला नहीं पहन सकती और पहनाया भी नहीं जा सकता। किन्तु श्रद्धालु के पास उसके सिवाय कोई चारा भी नहीं है। वह नहीं चाहता कि अनन्य श्रद्धा शब्दों के माध्यम से बाहर आए, लेकिन वाणी मुखरित हो जाती है। श्रद्धा के वे अल्प शब्द अनंत श्रद्धालुओं के लिए प्राण, जीवन और संजीवनी बन जाते हैं। ___ मेघ की आलोकित आत्मा अंत में कृतज्ञ के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करती है, जिसका एक-एक शब्द श्रद्धा से स्पन्दित है और भावों की विशुद्धि लिए हुए है। मेघः प्राह ३९.सर्वज्ञोऽसि सर्वदर्शी, स्थितात्मा धृतिमानसि। अनायुरभयो ग्रन्थादतीतोऽसि भवान्तकृत्॥ . मेघ ने कहा-आर्य! आप सर्वज्ञ हैं, सर्वदर्शी हैं, स्थितात्मा हैं, धैर्यवान् हैं, अमर हैं, अभय हैं, राग-द्वेष की ग्रंथियों से रहित हैं और संसार का अंत करने वाले हैं। ४०. पश्यतामुत्तमं चक्षुर्जानिनां ज्ञानमुत्तमम्। तिष्ठतां स्थिरभावोऽसि, गच्छतां गतिरुत्तमा।। आप देखने वालों के लिए उत्तम चक्षु हैं, ज्ञानियों के लिए उत्तम ज्ञान हैं, ठहरने वालों के लिए उत्तम स्थान हैं और चलने वालों के लिए उत्तम गति हैं। ४१.शरणं चास्पऽबन्धूनां, प्रतिष्ठा चलचेतसाम्। आप अशरणों के शरण हैं, अस्थिर चित्त वाले मनुष्यों के पोतश्चासि तितीषूणां, श्वासः प्राणभृतां महान्॥ लिए प्रतिष्ठान है, संसार से पार होने वालों के लिए नौका हैं और प्राणधारियों के लिए आप श्वास हैं। ४२.तीर्थनाथ! त्वया तीर्थमिदमस्ति प्रवर्तितम्। स्वयंसम्बुद्ध! सम्बुद्ध्या, बोधितं सकलं जगत्॥ हे तीर्थनाथ! आपने इस चतुर्विध संघ का प्रवर्तन किया है। हे स्वयंसंबुद्ध ! आपने अपने ज्ञान से समस्त संसार को जागृत किया है। ४३.अहिंसाराधनां कृत्वा, जातोऽसि पुरुषोत्तमः। जातः पुरुषसिंहोऽसि, भयमुत्सार्य सर्वथा॥ भगवन् ! आप अहिंसा की आराधना कर पुरुषोत्तम बने हैं, भय को सर्वथा छोड़ पुरुषों में सिंह के समान पराक्रमी बने हैं। ४४. पुरुषेषु पुण्डरीकः, निर्लेपो जातवानसि। पुरुषेषु गन्धहस्ती, जातोऽसि गुणसम्पदा॥ निर्लेप होने के कारण आप पुरुषों में पुण्डरीक- कमल के समान हैं। गुण-संपदा से समृद्ध होने के कारण आप पुरुषों में गंधहस्ती के समान हैं। ४५.लोकोत्तमो लोकनाथो, लोकद्वीपोऽभयप्रदः। दृष्टिदो मार्गदः पुंसां प्राणदो बोधिदो महान्। भगवन् ! आप संसार में उत्तम हैं, संसार के एकमात्र नेता हैं, संसार के द्वीप हैं, अभयदाता हैं, महान् हैं तथा मनुष्यों को दृष्टि देने वाले हैं, मार्ग देने वाले हैं, प्राण और बोधि देने वाले हैं।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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