________________
संबोधि
महाप्रभः ।
४६. धर्मवरचातुरन्त चक्रवर्ती शिवोऽचलोऽक्षयोऽनन्तो धर्मदो धर्मसारथिः ॥
,
३८५
४७. जिनश्च जापकश्चासि तीर्णस्तथासि तारकः । बुद्धश्च बोधकश्चासि मुक्तस्तथासि मोचकः ॥
अ. १६ मनः प्रसाद
प्रभो! आप धर्म चक्रवतीं हैं। आप महान् प्रभाकर हैं, शिव हैं, अचल हैं, अक्षय हैं, अनन्त हैं, धर्म का दान करने वाले हैं। और धर्म - रथ के सारथि हैं।
प्रभो! आप आत्म-जेता हैं और दूसरों को विजयी बनाने वाले हैं। आप स्वयं संसार सागर से तर गए हैं और दूसरों को उससे तारने वाले हैं। आप बुद्ध हैं और दूसरों को बोधि देने वाले हैं। आप स्वयं मुक्त हैं और दूसरों को मुक्त करने वाले हैं।
॥ व्याख्या ॥
इस संसार में सबसे अलभ्य घटना है-शिष्य होना। किसी ने सत्य कहा है एक चीज ऐसी है जिसके देने वाले बहुत ..हैं और लेने वाले कम । वह है- उपदेश । सब गुरु बनना चाहते हैं, शिष्य नहीं। शिष्य वह होता है जिसमें सीखने की उत्कट अभिलाषा हो। 'इजिप्त' में कहावत है जब शिष्य तैयार होता है तो गुरु मौजूद हो जाता है। गुरु की उपलब्धि भी सहजसरल नहीं है। जब शिष्य ही न हो तो गुरु का मिलना कैसे संभव हो ? शिष्य कैसे गुरु की खोज करे? उसमें यदि इतनी योग्यता हो तो फिर वह गुरु से भी ऊंचा हो जाता है। कहते हैं-गुरु ही शिष्य को खोजते हैं।
बायजीद गुरु के पास वर्षों रहा। गुरु ने अनेक ऐसे अवसर दिए कि श्रद्धा प्रकंपित हो जाए। अनेक शिष्य चले गए किन्तु वायजीद स्थिर रहा। साधना पूरी हो गई। गुरु ने कहा- मेरे संबंध में कुछ पूछना है वायजिद हंसा और बोला- वह सब नाटक था। मुझे अपने काम की जरूरत थी ।
फ्रेकक्रैन ने कहा है- सर्वोत्तम गुरु वह है जो आपको आत्म-परिचय कराने के लिए आपका पथ-दर्शन करे। गुरु बांधना नहीं चाहते, वे चाहते हैं मुक्त करना । जापान के आश्रम में तब कोई शिष्य सीखने आता है तो गुरु उसे मार्ग-दर्शन दे देते और कहते- 'यह चटाई है, आना, इस पर बैठकर अपना काम करना और जिस दिन कार्य पूर्ण हो जाए चटाई को गोल कर चले जाना। मैं समझ लूंगा कि काम हो गया है।' धन्यवाद की भी आकांक्षा नहीं रखते। शिष्य कैसे उस कृतज्ञता को भूल सकता है। गुरु लेन-देन, व्यवसाय की बात नहीं चाहते। किन्तु शिष्य का स्वर मुखरित हुए बिना कैसे रख सकता है?.
मेघ ने जो कुछ कहा है, वह यही स्वर है। महावीर ने कह दिया- मुझे भी मत पकड़ना । मेरे साथ भी स्नेह मत करना, अन्यथा यात्रा बीच में रह जाएगी बस पकड़ना है केवल अपने को मेघ ने महावीर को बीच से हटा दिया। वह अकेला,
|
अनवरत साधना-पथ पर बढ़ता रहा । साधना सिद्ध हुई और महावीर सामने खड़े हो गए। अब मेघ और महावीर के द्वैत नहीं रहा । कृतज्ञता के स्वरों में मेघ की आत्मा नर्तन करने लगी । साधक सहजोबाई ने कहा है- भगवान् को छोड़ सकती हूं पर गुरु को नहीं । भगवान् ने कांटे ही कांटे बिछाए और गुरु ने सबको दूर हटा दिया। उसने बड़े मीठे, सरस और उपालंभ भरे पद कहे हैं
राम तजू पे गुरु न बिसारूं, गुरु को सम हरि को न निहारूं । हरि ने जनम दिया जग मांही, गुरु ने आवागमन छुड़ाहि । हरि ने पांच चोर दिए साथा, गुरु ने लाई छुड़ाया अनाथा ॥ हरि ने कुटुम्ब जालन में गेरी, गुरु ने काटी ममता वेरी । हरि ने रोग भोग उरझायो, गुरु जोगी कर सर्व छुड़ायो । हरि ने मोसूं आप छिपायो, गुरु दीपक देताहि दिखायो । फिर हरि बंधि मुक्ति गति लाये, गुरु ने सबही भर्म मिटाये ॥ चरण दास पर तन मन बारूं, गुरु न तजूं हरि को तज डारूं ॥