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आत्मा का दर्शन
३८६ ४८.निर्ग्रन्थानामधिपतेः, प्रवचनमिदं महत्। निग्रंथों के अधिपति भगवान् महावीर के इस महान् प्रवचन प्रतिबोधश्च मेघस्य शृणुयाच्छ्रद्दधीत यः॥ को और प्रतिबोध को जो सुनता है, श्रद्धा रखता है, उसकी ष्टि
निर्मल होती है, उसे सम्यग-पथ की प्राप्ति होती है, मोह के बंधन ४९.निर्मला जायते दृष्टिः, मार्गः स्याद् दृष्टिमागतः। टूट जाते हैं और वह मुक्त बन जाता है। मोहश्च विलयं गच्छेत, मुक्तिस्तस्य प्रजायते॥
(युग्मम्)
॥ व्याख्या ॥
___मेघ के माध्यम से 'संबोधि' का जन्म हुआ। मेघ ने महावीर से सुना, समझा और श्रद्धा-पूर्वक उसका अनुशीलन किया। हम सबके अंतस्तल में सच्ची प्यास प्रकट हो और हम महावीर के पवित्र चरणों में अपने आपको सहज भाव से समर्पित कर उस परम सत्य का रसास्वादन करें।
इति आचार्यमहाप्रज्ञविरचिते संबोधिप्रकरणे
मनःप्रसादनामा षोडशोऽध्यायः। -