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प्रायोगिक दर्शन
१९. जया कम्मं खवित्ताणं, सिद्धिं गच्छइ नीरओ । तया लोगमत्थयत्थो, सिद्धो हवइ सासओ ॥
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२०. जहा सुई ससुत्ता, पडिया वि न विणस्सइ । तहा जीवे ससुत्ते, संसारे न विणस्सइ ॥
श्रमणोपासक मदुक और अन्यतीर्थिक २१. तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नामं नगरे | गुणसिलए चेइए | तस्स णं गुणसिलस्स चेइयस्स अदूरसामंते बहवे. अण्णउत्थिया परिवसंति, तं जहा - कालोदाई, सेलोदाई.... सुहत्थी गाहावई । तए णं तेसिं अण्णउत्थियाणं अण्णया कयाइ एगयओ सहियाणं.... मिहोकहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था - एवं खलु समणे नायपुत्ते पंच अत्थिकाए पण्णवेति, तं जहा-धम्मत्थिकायं अधम्मत्थिकायं, आगासत्थिकायं जीवत्थिकायं पोगलत्थिकायं ।
तत्थ णं समणे नायपुत्ते चत्तारि अत्थिकाए अजीवकाए पण्णवेति, तं जहा - धम्मत्थिकायं, अधम्मत्थिकायं, आगासत्थिकायं, पोग्गलत्थिकायं ।
एगं च णं समणे नायपुत्ते जीवत्थिकायं अरूविकायं जीवकायं पण्णवेति ।
अ. ३ : सम्यग्ज्ञान
कर्मों का क्षय कर रजमुक्त हो सिद्धि को प्राप्त होता है, तब वह लोक के मस्तक पर स्थित हो शाश्वत सिद्ध हो जाता है।
अस्तिकायवाद
तत्थ णं समणे नायपुत्ते चत्तारि अत्थिकाए अरूविकाए पण्णवेति, तं जहा - धम्मत्थिकायं, अधम्मत्थिकायं, आगासत्थिकायं, जीवत्थिकायं । एगं च णं समणे नायपुत्ते पोग्गलत्थिकायं रूवि - कायं अजीवकायं पण्णवेति । से कहमेयं मन्ने एवं ? तत्थ णं रायगिहे नगरे मदुए नामं समणोवासए परिवसति ।.....अभिगयजीवाजीवे जाव विहरह | तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णया कदायि पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्माणे सुहंसुहेणं विहरमाणे जेणेव रायगिहे नगरे जेणेव , गुणसिलए चेइए तेणेव समोसढे । परिसा जाव पज्जुवासति ।
जिस प्रकार धागे में पिरोई हुई सूई गिरने पर भी गुम नहीं होती, उसी प्रकार ससूत्र - ज्ञानी मनुष्य संसार चक्र में विनष्ट नहीं होता ।
राजगृह नाम का नगर । गुणशिल नाम का चैत्य । उस चैत्य के पास बहुत से अन्यतीर्थिक रहते थे - कालोदाई, शैलोदाई आदि परिव्राजक तथा सुहस्ती नामक गृहपति ।
एक दिन वे गोष्ठी कर रहे थे। परस्पर चर्चा चलीश्रमण ज्ञातपुत्र महावीर पंचास्तिकाय का प्रतिपादन करते हैं। वे पंचास्तिकाय हैं- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय ।
श्रमण ज्ञातपुत्र महावीर चार अस्तिकाय को अजीव (अचेतन) बतलाते हैं। जैसे- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय ।
श्रमण ज्ञातपुत्र महावीर एक जीवास्तिकाय को अरूपी और जीव (चेतन) बतलाते हैं।
श्रमण ज्ञातपुत्र महावीर चार अस्तिकाय को अरूपी (अचेतन) बतलाते हैं। जैसे- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय ।
श्रमण ज्ञातपुत्र महावीर एक पुद्गलास्तिकाय को रूपी और अजीव बतलाते हैं, यह कैसे ?
उसी राजगृह नगर में मदुक नाम का श्रमणोपासक रहता था। वह जीव अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञाता था।
श्रमण भगवान महावीर जनपद विहार करते हुए राजगृह नगर में आए। गुणशिल चैत्य में ठहरे। नगरवासी पर्युपासना करने लगे।