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________________ आत्मा का दर्शन ४३८ खण्ड-४ १०.जया पुण्णं च पावं च बंधं मोक्ख च जाणई। तया निव्विंदए भोए, जे दिव्वे जे य माणुसे॥ पुण्य, पाप, बंध और मोक्ष को जान लेता है, तब वह दिव्य और मानुषी भोगों से विरक्त हो जाता है। ११.जया निव्विंदए भोए, जे दिव्वे जे य माणुसे। तया चयइ संजोगं, सब्भिंतरबाहिरं। दिव्य और मानुषी भोगों से विरक्त हो जाता है, तब वह आंतरिक संयोग-संवेग जनित संयोग, बाह्य संयोगपारिवारिक संयोग-दोनों प्रकार के संयोगों को त्याग देता है। १२.जया चयइ संजोगं, सब्भिंतरबाहिरं। तया मुंडे भवित्ताणं, पव्वइए अणगारियं। आंतरिक संयोग-संवेग जनित संयोग, बाह्य संयोगपारिवारिक संयोग-दोनों प्रकार के संयोगों को त्याग देता है, तब वह मुंड हो गृहत्यागी हो जाता है। १३.जया मुंडे भवित्ताणं, पव्वइए अणगारियं। तया संवरमुक्किटं, धम्मं फासे अणुत्तरं॥ मुंड हो गृहत्यागी हो जाता है, तब वह उत्कृष्ट संवरधर्म (प्रवृत्ति-निरोध) का स्पर्श करता है। १४.जया संवरमुक्किठें, धम्म फासे अणुत्तरं। तया धुणइ कम्मरयं, अबोहिकलसं कडं॥ . उत्कृष्ट संवरधर्म (प्रवृत्ति-निरोध) का स्पर्श करता है, तब वह अबोधि की मलिनता से संचित कर्मरज को धुन डालता है। १५.जया धुणइ कम्मरयं, अबोहिकलसं कडं। तया सव्वत्तगं नाणं, दंसणं चाभिगच्छई।। अबोधि की मलिनता से संचित कर्मरज को धुन डालता है, तब वह सर्वत्रगामी (सब द्रव्यों और पर्यायों को जानने वाला) ज्ञान और दर्शन-केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त कर लेता है। १६.जया सव्वत्तगं नाणं, दंसणं चाभिगच्छई। तया लोगमलोगं च, जिणो जाणइ केवली॥ ...सर्वत्रगामी (सब द्रव्यों और पर्यायों को जानने वाला) ज्ञान और दर्शन-केवल ज्ञान और केवल दर्शन को प्राप्त कर लेता है, तब वह जिन और केवली होकर लोकअलोक को जान लेता है। १७.जया लोगमलोगं च, जिणो जाणइ केवली। तया जोगे निलंभित्ता, सेलेसिं पडिवज्जई। जिन और केवली होकर लोक-अलोक को जान लेता है, तब वह योग (मन, वचन व काया की प्रवृत्ति) का निरोध कर शैलेशी (सर्वथा अप्रकंप) अवस्था को प्राप्त कर लेता है। १८.जया जोगे निलंभित्ता, सेलेसिं पडिवज्जई। तया कम्मं खवित्ताणं, सिद्धिं गच्छइ नीरओ॥ योग (मन, वचन व काया की प्रवृत्ति) का निरोध कर शैलेशी (सर्वथा अप्रकंप) अवस्था को प्राप्त कर लेता है, तब वह कर्मों का क्षय कर रजमुक्त बन सिद्धि को प्राप्त होता है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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