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आत्मा का दर्शन ७४४
खण्ड-५ ६९४. दव्वठियवत्तव्वं,
द्रव्यार्थिक नय का वक्तव्य (सामान्यांश) अवत्थु णियमेण पज्जव-णयस्स। पर्यायार्थिक नय के लिए नियमतः अवस्तु है और तह पज्जववत्थु,
पर्यायार्थिक नय की विषयभूत वस्तु (विशेषांश). अवत्थुमेव दव्वठिय-नयस्स॥ द्रव्यार्थिक नय के लिए अवस्तु है।
६९५. उप्पज्जति वियंति य,
भावा नियमेण पज्जव-नयस्स। दव्वट्ठियस्स सव्वं, सया अणुप्पन्न-मविणठं॥
पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से पदार्थ नियमतः उत्पन्न होते हैं। और द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से सकल पदार्थ सदैव अनुत्पन्न और अविनाशी होते हैं।
६९६. दव्वट्ठिएण सव्वं, दव्वं तं पज्जयट्ठिएण पुणो।
हवदि य अन्नमणन्नं, तक्काले तम्मयत्तादो॥
द्रव्यार्थिक नय से सभी द्रव्य हैं और पर्यायार्थिक नय से वह अन्य-अन्य है, क्योंकि जिस समय में जिस नय से वस्तु को देखते हैं, उस समय वह वस्तु उसी रूप में दृष्टिगोचर होती है।
६९७. पज्जयं गउणं किच्चा,
जो ज्ञान पर्याय को गौण करके लोक में द्रव्य का ही दव्वं पि य जो हु गिण्हइ लोए। ग्रहण करता है, उसे द्रव्यार्थिक नय कहा गया है। जो द्रव्य सो दव्वत्थिय भणिओ,
को गौण करके पर्याय का ही ग्रहण करता है, उसे विवरीओ पज्जयत्थिणओ॥ पर्यायार्थिक नय कहा गया है।
६९८. नेगम-संगह-ववहार-उज्जुसुए चेव होई बोधव्वा।
सहे य समभिरूढे,एवंभूए य मूलनया॥
मूल नय सात हैं नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ तथा एवंभूत।,
६९९. पढम-तिया दव्वत्थी,
पज्जय-गाही य इयर जे भणिया। ते चदु अत्थपहाणा, सहपहाणा हु तिण्णि या॥
इनमें से प्रथम तीन द्रव्यार्थिक हैं और शेष चार नंय पर्यायार्थिक हैं। सातों में से पहले चार नय अर्थप्रधान हैं और अंतिम तीन नय शब्दप्रधान हैं।
७००. गाई माणाई, सामन्नोभय-विसेसनाणाइं।
जं तेहिं मिणइ तो, णेगमो णओ णेगमाणो ति॥
सामान्यज्ञान, विशेषज्ञान तथा उभयज्ञान रूप से जो अनेक मान लोक में प्रचलित हैं उन्हें जिसके द्वारा जाना जाता है वह नैगम नय है। इसीलिए उसे 'नयिकमान' अर्थात् विविधरूप से जानना कहा गया है।
७०१. णिव्वित्त दव्वकिरिया,
वट्टणकाले दु जं समाचरणं। तं भूय-णइगम-णयं,
जह अज्जदिणं निव्वुओ वीरो॥
(भूत, वर्तमान और भविष्य के भेद से नैगमनय तीन प्रकार का है।) जो द्रव्य या कार्य भूतकाल में समाप्त हो चुका हो उसका वर्तमान काल में आरोपण करना भूत नैगमनय है। जैसे हजारों वर्ष पूर्व हुए महावीर के निर्वाण के लिए कहना कि 'आज के दिन महावीर का निर्वाण हुआ है।