SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 768
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समणसुत्तं, ७०२. पारद्धा जा किरिया, लोय पुच्छमाणे, पयणविहाणादि कहइ जो सिद्धं । तं भण्णइ वट्टमाणणयं ॥ ७०३. णिप्पण्णमिव पयंपदि, अप्पत्थे जह पत्थं, भण्णइ सो भावि णइगमो त्ति णओ ॥ ७०४. अवरोप्परम-विरोहे, होइ तमेव असुद्ध भाविपदत्थं णरो अणिपण्णं । सव्वं अस्थि त्ति सुद्धसंगहणे । ·इगजाइविसेसगहणेण ॥ ७०५. जं संगहेण गहियं भेयइ अत्थं असुद्धं सुद्धं वा । सो घवहारो दुविहो, असुद्ध - सुद्धत्थ - भयकरो ॥ ७०६. जो एयसमयवट्टी, सो रित्तो सुमो, ७०७. मणुयाइय-पज्जाओ, ७४५ ७०८. सवणं सपइ स तेणं, गिइ दव्वे धुवत्त-पज्जायं । सव्वं पिस जहा खणियं ॥ सो त सगट्ठिदीसु वट्टतो। जो भइ तावकालं, सो थलो होइ रिउसुत्तो ॥ व सप्पए वत्थु जं तओ सद्दो । तस्सत्थ- परिग्गहओ, नओ वि सद्दो त्ति हेउ व्व ॥ ७०९. जो वट्टणं ण मण्णइ, एयत्थे भिन्नलिंगआईणं । सो सद्दणओ भणिओ, ओ पुस्साइआण जहा ॥ अ. ४ : स्याद्वाद जिस कार्य को अभी प्रारंभ ही किया है उसके बारे में लोगों के पूछने पर पूरा हुआ कहना' जैसे भोजन बनाना प्रारंभ करने पर ही यह कहना कि 'आज भात बनाया है' यह वर्तमान नैगमनय है। जो कार्य भविष्य में होनेवाला है उसके निष्पन्न न होने पर भी निष्पन्न हुआ कहना भावी नैगमनय है। जैसे जो अभी गया नहीं है उसके लिए कहना कि 'वह गया' । संग्रहनय के दो भेद हैं- शुद्धसंग्रहनय और अशुद्धसंग्रहनय । शुद्धसंग्रहनय में परस्पर में विरोध न करके सत्रूप से सबका ग्रहण होता है। उसमें से एक जातिविशेष को ग्रहण करने से वही अशुद्धसंग्रहनय होता है। जो संग्रहनय द्वारा गृहीत शुद्ध अथवा अशुद्ध अर्थ का भेद करता है, वह व्यवहारनय है। यह भी दो प्रकार का है - एक अशुद्धार्थ भेदक और दूसरा शुद्धार्थ भेदक । जो द्रव्य में एक समयवर्ती (वर्तमान) अध्रुव पर्याय को ग्रहण करता है उसे सूक्ष्मऋजुसूत्रनय कहते हैं। जैसे सब सत्क्षणिक है। (और) जो अपनी स्थितिपर्यन्त रहनेवाली मनुष्यादि पर्याय को उतने समय तक एक मनुष्यरूप से ग्रहण करता है, वह स्थूलऋजुसूत्रनय है । शपन अर्थात् आह्वान शब्द है, अथवा जो 'शपति' अर्थात् आह्वान करता है वह शब्द है। अथवा ' शप्यते' जिसके द्वारा वस्तु को कहा जाता है वह शब्द है। उस शब्द का वाच्य जो अर्थ है, उसको ग्रहण करने से नय को भी शब्द कहा गया है। जो एकार्थवाची शब्दों में लिंग आदि के भेद से अर्थभेद मानता है, उसे शब्दनय कहा गया है। जैसे पुष्य शब्द पुल्लिंग में नक्षत्र का वाचक है और पुष्या स्त्रीलिंग तारिका का बोध कराती है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy