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कर्मवाद
विभक्तिभाव की कारण मीमांसा
१. कम्मओ णं भंते! जीवे नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ ?
२. कम्मओ णं जए नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ ?
हंता गोयमा ! कम्मओ णं जीवे नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ । कम्मओ णं जए नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणम |
जीवाणं भंते! किं चेयकडा कम्मा कज्जंति ? अधेयकडा कम्मा कज्जंति ?
गोयमा ! जीवाणं चेयकडा कम्मा कज्जंति, नो अधेयकडा कम्मा कज्जति ।
कर्म : चैतन्यकृत या अचैतन्यकृत ?
सेकेणट्ठेण भंते! एवं बुच्चइ - जीवाणं चेयकडा कम्मा कज्जति, नो अचेयकडा कम्मा कज्जंति ? गोयमा ! जीवाणं आहारोवचिया पोग्गला, बोंदिचिया पोग्गला, कलेवरचिया पोग्गला तहा ताणं ते पोग्गला परिणमंति, नत्थि अचेयकडा कम्मा समणाउसो !
भंते! जीव का विभक्तिभाव-विभाजन कर्म से होता है, अकर्म से नहीं होता। क्या यह सही है ?
ट्ठाणेसु, दुसेज्जासु, दुन्निसीहियासु तहा तहा णं ते पोम्गला परिणमंति, नत्थि अचेयकडा कम्मा समणाउसो !
भंते! जगत का विभक्तिभाव-विभाजन कर्म से होता है, अकर्म से नहीं होता। क्या यह सही है ?
हां गौतम ! जीव का विभक्तिभाव कर्म से होता है, अकर्म से नहीं होता।
जगत का विभक्तिभाव कर्म से होता है, अकर्म से नहीं होता ।
भंते! जीवों में कर्म चेतस (चैतन्य) कृत होते हैं। अथवा अचेतस (अचैतन्य) कृत होते हैं ?
गौतम! जीवों के कर्म चैतन्यकृत होते हैं, अचैतन्यकृत नहीं होते।
भंते! यह किस अपेक्षा से कहा जा रहा है-जीवों के कर्म चैतन्यकृत होते हैं, अचैतन्यकृत नहीं होते ?
गौतम! जैसे जीव आहार, शरीर और कलेवर प्रायोग्य पुद्गलों का ग्रहण करते हैं। वे पुद्गल आहार, शरीर और कलेवर के रूप में परिणत होते हैं। वैसे ही जीव कर्म प्रायोग्य पुद्गलों का ग्रहण करते हैं और वे कर्मरूप में परिणत होते हैं। अतः कर्म अचैतन्यकृत नहीं होते, आयुष्मन् श्रमण !
जैसे जीव अशुद्ध वातावरण वाले स्थान, बस्ती और निषद्या में अशुद्ध पुद्गलों का ग्रहण करते हैं और वे पुद्गल अशुद्ध रूप में परिणत होते हैं, वैसे ही जीव कर्म-प्रायोग्य पुद्गलों का ग्रहण करते हैं और वे कर्म रूप में परिणत हेते हैं। अतः कर्म अचैतन्यकृत नहीं होते, आयुष्मन् श्रमण !