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आत्मा का दर्शन
२९२ १५.न धर्मो देहदुःखार्थ, असौ सत्योपलब्धये। धर्म शरीर को कष्ट देने के लिए नहीं किन्तु सत्य की न च सत्योपलब्धिः स्याद्, अहिंसाभ्यासमन्तरा॥ उपलब्धि के लिए है। अहिंसा का अभ्यास किए बिना सत्य की
उपलब्धि नहीं होती।
॥ व्याख्या ॥ धर्म आत्म-स्वभाव के प्रगटीकरण का माध्यम है। शरीर, इन्द्रियां और मन-ये आत्मा के विपरीत दिशागामी हैं। जब कोई भी धर्म की यात्रा पर अभिनिष्क्रमण करता है तब ये सहायक नहीं होते हो और दूसरे लोगों की दृष्टि में भी यह यात्रा सुखद प्रतीत नहीं होती। क्योंकि लोग चलते हैं इन्द्रियों की तरफ और धार्मिक चलता है इनके विपरीत।..
मेघ को महावीर का यह मार्ग-दर्शन बड़ा अटपटा और दुर्धर्ष भी लगा। उसने विनम्र निवेदन किया-'प्रभो! आनंद की इस यात्रा में यह कष्टमय जीवन क्यों?' महावीर ने कहा-'वत्स! यह समझ का अंतर है। मैंने धर्म का प्रतिपादन सत्य के साक्षात्कार के लिए किया है। सत्य की उपलब्धि विषयाभिमुखता में कैसे होगी? सत्य-दर्शन के लिए तो हमें सत्य पथ का अनुसरण करना होगा। इन्द्रिय, मन और शरीर की अपेक्षाओं की पूर्ति में वह होता तो आज तक हो जाता, किन्तु ऐसा नहीं होता। यह यात्रा सत्य की विरोधी है। सत्य के लिए तो पुनः स्वभाव की ओर चलना होगा। मैंने जो कुछ कहा है, वह सत्य की दिशा में अग्रसर होने के लिए कहा है। तुम देखो, लोग अर्थार्जन, परिवार आदि के लिए कितने कष्ट उठाते हैं। संयम की यात्रा में यदि कोई समर्पित होकर इससे आधा भी कष्ट उठाले तो मंजिल तक पहुंचा जा सकता है। लोग भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, यातना और मृत्यु तक की पीड़ा झेल लेते हैं, तब फिर यह क्या है ? नासमझ लोगों ने धर्म को घोर दुःखमय कह दिया। धर्म में शरीर को सताने या न सताने का कोई प्रश्न ही नहीं है। वह तो सिर्फ आवरण को हटाने के लिए है। आवरण की क्षीणता का स्थूल परिणाम शरीर पर दिखाई देता है। इसलिए सामान्य जन उसे सताना या पीड़ा देना समझ लेते हैं। गौण को मुख्य मान लेते हैं और मुख्य को गौण। मेरा प्रतिपाद्य अहिंसा है और वह सम्यग् विवेक के बिना परिलक्षित नहीं होती। मैंने उसे ही तप कहा है जो अज्ञानपूर्ण क्रियाओं से दूर हो, जिसमें चित्त क्षुब्ध न हो, विचार क्लेशपूर्ण न हों और ध्यान आर्त न हो। अब तुम स्वयं सोचो-यह कैसे घोर होगा ? व्यक्ति अपनी शक्ति को तोलकर इस मार्ग में नियोजित होता है। जो अज्ञानपूर्वक तप स्वीकार करते हैं, वे धर्म के गौरव को संवर्द्धित नहीं करते, यह दोष उनका है। मैंने धर्म की यात्रा का प्रथम चरण निर्दिष्ट किया है-विवेक। जहां विवेक है वहां धर्म के विकास की संभावना है।' १६.चेतना विषयासक्ता, हिंसां समनुधावति। जो चेतना विषयों में आसक्त है, वह हिंसा की ओर दौड़ती है आत्मानं प्रति संहृत्य, तामहिंसापदं नयेत्॥ इसलिए साधक उस चेतना को आत्मा की ओर मोड़कर उसे
अहिंसा में प्रतिष्ठित करे। १७.सति देहे सेन्द्रियेऽस्मिन्, सति चेतसि चञ्चले। जब तक शरीर और इंद्रियां हैं, जब तक मन चंचल है, तब इन्द्रियार्थाः प्रकृत्येष्टाः', नेष्टं तेषां विसर्जनम्॥ तक स्वभावतः इन्द्रियों के विषय अच्छे लगते है, उनका परित्याग
अच्छा नहीं लगता। १८.अहिंसाथ मया प्रोक्तं, आत्मसाम्यं चिराध्वनि। साधना की चिर परंपरा में मैंने आत्म-साम्य का निरूपण तदर्थं प्राप्तदुःखानि, सोढव्यानि ममक्षभिः॥ अहिंसा के विकास के लिए किया है। मुमुक्षु व्यक्तियों को
अहिंसा की साधना के मध्य जो भी दुःख प्राप्त हों, उन्हें सहना
चाहिए। १९.न देहोऽधर्ममूलोऽसौ, धर्ममूलो न चाप्यसौ। देह न अधर्म का मूल है और न धर्म का। योजक के द्वारा योजितो योजनासौ, धर्माधर्मकरो भवेत॥ जिस प्रकार उसकी योजना की जाती है, उसी प्रकार वह धर्म या
अधर्म का मूल बन जाता है। १. प्रकृत्या+इष्टाः-प्रकृत्येष्टाः।