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संबोधि
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अ. १२ : ज्ञेय-हेय-उपादेय ११.अभिग्रहो हि वृत्तीनां, वृत्तिसंक्षेप इष्यते। वृत्ति-आजीविका के अभिग्रह-प्रतिज्ञा को वृत्ति-संक्षेप भवेद् रसपरित्यागो, रसादीनां विवर्जनम्॥ कहते हैं। घी, तेल, दूध, दही, चीनी और मिठाई- इन विकृतियों
के त्याग करने को रस-परित्याग कहते हैं। १२.कायक्लेशः कायसिद्धिः, वीरपद्मासनान्यपि। काय-क्लेश का अर्थ है काय-सिद्धि-काया की साधना। कायोत्सर्गश्च पर्यक, गोदोहोत्कटिकादयः॥ कायसिद्धि के लिए वीरासन, पद्मासन, कायोत्सर्ग, पर्यकासन,
गोदोहिकासन, उत्कटिकासन आदि का प्रयोग किया जाता है।
॥ व्याख्या ॥ कायक्लेश के चार प्रकार हैं : १. आसन, २. आतापना ३. विभूषावर्जन और ४. परिकर्मवर्जन। १. आसन-शरीर की विशिष्ट मुद्राओं में अवस्थिति। आसन बैठे-बैठे सोकर अथवा खड़े-खड़े भी किए जा सकते हैं। आसन अनेक हैं। श्लोकगत आसनों की व्याख्या इस प्रकार है१. वीरासन-बद्ध-पद्मासन की भांति दोनों पैरों को रखकर हाथों को पद्मासन की तरह रखकर बैठना।
सिंहासन पर बैठकर उसे निकाल देने पर जो मुद्रा होती है उसे भी वीरासन कहते हैं। २. पद्मासन-जंघा के मध्य भाग में दूसरी जंघा को मिलाना। ३. कायोत्सर्ग-शरीर की सार-सम्हाल छोड़कर तथा दोनों भुजाओं को नीचे की ओर झुकाकार खड़ा रहना
अथवा स्थान, ध्यान और मौन के अतिरिक्त शरीर की समस्त क्रियाओं को त्यागकर बैठना। ४. पर्यकासन-जिन-प्रतिमा की भांति पद्मासन में बैठना।
५. गोदोहिकासन-घुटनों को ऊंचा रखकर पंजों के बल पर बैठना तथा दोनों हाथों को दोनों साथलों पर .. टिकाना। ... ६. उत्कटिकासन-दोनों पैरों को भूमि पर टिकाकार दोनों पुतों को भूमि से न छुआते हुए जमीन पर बैठना।
२. आतापना-सूर्य की रश्मियों का ताप लेना, शीत को सहन करना। निर्वस्त्र रहना। ३. विभूषावर्जन-किसी भी प्रकार का शृंगार न करना। ४. परिकर्मवर्जन-शरीर की सार-सम्हाल न करना।
भगवान् ने कहा-गौतम! सुख-सुविधा की चाह से आसक्ति बढ़ती है। आसक्ति से चैतन्य मूर्छित होता है। मूर्छा पृष्टता लाती है। धृष्ट व्यक्ति विजय का पथ नहीं पा सकता। इसीलिए मैंने यथाशक्ति कायक्लेश का विधान किया है।
मेघः प्राह १३. सर्वदर्शिन्! त्वया धर्मः, घोरोऽसौ प्रतिपादितः।
दुःखविच्छित्तये सोऽयं, तत्र दुःखं किमिष्यते?
मेघ बोला-हे सर्वदर्शिन्! आपने घोर धर्म का प्रतिपादन किया है। धर्म दुःख का नाश करता है, फिर उस धर्म में दुःख के लिए स्थान क्यों?
॥ व्याख्या ॥ बाह्य तप का विवरण सुन मेघ का मन कंपित हो उठा। उसने कहा-'भगवन्! आपने अत्यंत कठोर धर्म का प्रतिपादन किया है। यह सब के लिए कैसे संभव हो सकता है?' भगवान् ने उसका समाधान दिया।
གཙམའ ས་ == བྷ ་ རྒྱུ རྒྱུ
भगवान् प्राह ११.वत्स! न ज्ञातवान् मर्म, मर्म धर्मस्य किञ्चन।
अममवदिनो लोकाः, सत्यं घ्नन्ति सनातनम्॥
__भगवान् ने कहा-वत्स! तूने मेरे धर्म का कुछ भी मर्म नहीं समझा। जो पुरुष मर्म को नहीं जानते. वे सनातन सत्य की हत्या कर देते हैं।