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आत्मा का दर्शन ५४६
खण्ड-४ तए णं से सुदंसणे अम्मापिईहिं अब्भणुण्णाए माता-पिता से आज्ञा प्राप्त कर सुदर्शन ने स्नान समाणे पहाए सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाइं वत्थाई किया। पवित्र स्थान में प्रवेश करने योग्य मंगल वस्त्र पवर-परिहिए अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरे पहने। अल्पभार व बहुमूल्य आभरणों से शरीर को सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता अलंकृत किया और नगर के मध्य से निर्गमन किया। पायविहारचारेणं रायगिहं नगरं मज्झमज्झेणं निग्गच्छइ।..... मोग्गरपाणिस्स जक्खस्स जक्खाययणस्स मुद्गरपाणि यक्ष के यक्षायतन के पास से होकर जहां अदूरसामंतेणं जेणेव गुणासिलाए चेइए जेणेव गुणशिलक चैत्य है, वहां जाने लगा। समणे भगवं महावीरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तए णं से मोग्गरपाणी जक्खे सदसणं मुद्गरपाणि यक्ष ने श्रमणोपासक सुदर्शन को अपनी समणोवासयं अदूरसामंतेणं वीईवयमाणं ओर आते देखा। वीईवयमाणं पासइ, पासित्ता आसुरुत्ते रुठे कुविए वह रुष्ट और कुपित हो गया। प्रबल क्रोध से. जलने चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे तं पलसहस्सणिप्फण्णं लगा। एक हजार पल भारवाले लोहमय मुद्गर को अओमय मोग्गर उल्लालेमाणे जेणेव सुदसणे आकाश में उछालता हआ श्रमणोपासक सुदर्शन की ओर समणोवासए तेणेव पहारेत्थ गमणाए।
बढ़ा। तए णं से सुदंसणे समणोवासए मोग्गरपाणिं सुदर्शन श्रमणोपासक ने मुद्गरपाणि यक्ष को अपनी जक्खं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता अभीए अतत्थे ओर आते देखा। उस अवस्था में भी वह न डरा, न अणुव्विग्गे अक्खुभिए अचलिए असंभंते। वत्थंतेणं संत्रस्त हुआ,, न उद्विग्न हुआ, न क्षुब्ध हुआ, न चंचल भूमि पमज्जइ.......
हुआ और न घबराया। उसने वस्त्र के अंचल से भूमि का
प्रमार्जन किया। करयलपरिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए बद्धांजलि हो अंजलि को मस्तक पर टिकाकर अंजलिं कद एवं वयासी-नमोत्थु णं अरहंताणं बोला-सिद्धिगति को प्राप्त अर्हत् भगवान् को मेरा जाव सिद्धिगइनामधेज्जं ठाणं संपत्ताणं। नमोत्थु णं नमस्कार हो। सिद्धिगति प्राप्त करने वाले श्रमण भगवान समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव महावीर को मेरा नमस्कार हो।' सिद्धिगइनामधेज्जं ठाणं संपाविउकामस्स। पुव्विं पि णं मए समणस्स भगवओ महावीरस्स भगवान महावीर के पास मेरे द्वारा पहले से ही स्थूल अंतिए थूलए पाणाइवाए पच्चक्खाए जावज्जीवाए, प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, स्वदारसंतोष एवं थूलए मुसावए थूलए अदिण्णादाणे सदारसंतोसे इच्छा परिमाण व्रत यावज्जीवन के लिए स्वीकार किए हुए कए जावज्जीवाए, इच्छापरिमाणे कए जाव- हैं। ज्जीवाए। तं इदाणिं पि णं तस्सेव अंतियं सव्वं पाणाइवायं आज मैं पुनः उन्हीं के साक्ष्य से सर्वप्राणातिपात, पच्चक्खामि जावज्जीवाए मुसावायं अदत्तादाणं मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह का यावज्जीवन मेहुणं परिग्गहं पच्चक्खामि जावज्जीवाए। के लिए परित्याग करता हूं। सव्वं कोहं जाव मिच्छादसण-सल्लं पच्चक्खामि क्रोध यावत् मिथ्यादर्शन शल्य पर्यंत सब पापों का जावज्जीवाए,
यावज्जीवन के लिए प्रत्याख्यान करता हूं। सव्वं असणं पाणं खाइमं साइमं चउब्विहं पि सब प्रकार के अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य-चतुर्विध आहारं पच्चक्खामि जावज्जीवाए।
आहार का भी यावज्जीवन के लिए प्रत्याख्यान करता है।