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प्रायोगिक दर्शन
व्युत्सर्ग
५७. सयणासणठाणे वा जे उ भिक्खू न वावरे । कायस्स विउस्सग्गो छट्ठो सो परिकित्तिओ ॥
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त्सर्ग का प्रयोग
श्रमणोपासक सुदर्शन और मालाकार अर्जुन ५८. तए णं तस्स सुदंसणस्स बहुजणस्स अंतिए एवं सोच्चा निसम्म अयं अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोग संकप्पे समुप्पज्जित्था - एवं खलु समणे भगवं महावीरे जाव विहरइ । तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीरं वंदामि - एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल - परिग्गहियं दसणहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलि कट्टु एवं वयासी - एवं खलु अम्मयाओ ! समणे भगवं महावीरे जाव विहरइ । तं गच्छामि गं समणं भगवं महावीरं वंदामि नम॑सामि सक्कारेमि सम्माणेमि ।..
तए णं सुदंसणं सेठिं अम्मापियरो एवं वयासी एवं खलु पुत्ता ! अज्जुणए मालागारे मोग्गरपाणिणा जक्खेणं अण्णाइट्ठे समाणे रायगिहस्स नयरस्स परिपेरंतेणं कल्लाकल्लिं बहिया इत्थिसत्तमे छ पुरिसे घाएमाणे-घाएमाणे विरह । तं मागं तुमं पुत्ता ! समणं भगवं महावीरं वंदए निग्गच्छाहि, मा णं तव सरीरयस्स वावत्ती भविस्सह । तुमण्णं इह गए चेव समणं भगवं महावीरं वंदाहि ।
तए णं से सुदंसणे सेट्ठी अम्मापियरं एवं वयासी- किण्णं अहं अम्मयाओ! समणं भगवं महावीरं इहमागयं इह पत्तं इह समोसढं इह गए चेव बंदिस्सामि ? तं गच्छामि णं अहं अम्मयाओ ! तुम्मेहिं अब्भणुण्णाए समाणे समणं भगवं महावीरं बंदए ।
तणं सुदंसणं सेट्ठि अम्मापियरो जाहे नो संचारति बहूहिं आघवणाहिं पण्णवणाहिं ...... मवेत ताहे एवं वयासी - अहासुहं देवाणुप्पिया ! पहिबंध करेहि ।
अ. ९ : धर्म
सोने, बैठने या खड़े रहने के समय जो भिक्षु कायिक चेष्टा का परिहार करता है, उसे व्युत्सर्ग तप कहा जाता है । यह आभ्यन्तर तप का छठा प्रकार है।
राजगृह नगर । सेठ सुदर्शन ने बहुत लोगों से सुना-नगर के बाहर उद्यान में श्रमण महावीर पधारे हैं। उसके मन में संकल्प जागा- मैं वहां जाऊं और श्रमण भगवान महावीर को वन्दन करूं। इस संकल्प के साथ वह अपने माता-पिता के पास आया, बद्धांजलि हो अंजलि को सिर पर टिका बोला- माता-पिता! श्रमण भगवान महावीर यहां पधारे हैं। मैं चाहता हूं कि वहां जाऊं और श्रमण भगवान महावीर को वन्दन - नमस्कार करूं । उनका सत्कार और सम्मान करूं ।
सुदर्शन से यह सुन माता-पिता बोले- पुत्र ! नगर के परिसर में मुद्गरपाणि यक्ष से आविष्ट मालाकार अर्जुन . है। वह प्रतिदिन छह पुरुषों और एक स्त्री की हत्या करता है। इसलिए पुत्र! तुम भगवान महावीर को वन्दन करने मत जाओ। तुम्हारे शरीर का कोई अनिष्ट न हो, अतः तुम यहीं बैठ श्रमण भगवान महावीर को वन्दन - नमस्कार करो।
सुदर्शन ने माता-पिता से कहा- माता-पिता ! भगवान महावीर यहां आए हैं। यहां प्राप्त हैं। यहां समवसृत हैं। मैं उन्हें यहां बैठे-बैठे ही वन्दन- नमस्कार करूं, यह कैसे हो सकता है ? मैं आपकी आज्ञा प्राप्त कर भगवान महावीर को वन्दन करने के लिए वहीं जा रहा हूं।
सुदर्शन के माता-पिता अनेक प्रकार की प्रज्ञापनाओं से जब उसे न समझा सके, तब बोले- देवानुप्रिय ! तुम स्वतंत्रतापूर्वक जैसा चाहो वैसा करो ।