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तत्त्व सूत्र
५८८. जावन्तऽविज्जापुरिसा, सव्वे ते दुक्खसंभवा । लुप्यन्ति बहुसो मूढा, संसारम्मि अणन्त ॥
५८९. समिक्ख पंडिए तम्हा, पासजाइ- पहे बहू। अप्पणा सच्च मेसेज्जा, मेत्तिं भूएस कप्पए ॥
५९०. तच्वं तह परमठ्ठे, दव्वसहावं तहेव परमपरं । धेयं सुद्धं परमं, एयट्ठा हुंति अभिहाणा ||
५९१. जीवाऽजीवा य बन्धो य,
तत्त्व-दर्शन
पुण्णं पावाऽऽसवो तहा। संवरो निज्जरा मोक्खो, संतेए तहिया नव ॥
५९२. उवओग- लक्खण-मणाइ
निहण-मत्थंतरं सरीराओ । जीवमरूविं कारिं, भोयं च सयस्स कम्मस्स ॥
५९३. सुहदुक्खजाणणा वा,
हिदपरियम्मं च अहिदभीरुत्तं । 'जस्सण विज्जदि णिच्चं,
तं समणा बिंति अज्जीवं ॥
५९४. अज्जीवो पुण ओ,
पुग्गल धम्मो अहम्म आयासं । कालो पुग्गल मुत्तो,
रूवादिगुणो अमुत्ति सेसा
'हु ॥
तत्त्व सूत्र
समस्त अविद्यावान् (अज्ञानी पुरुष ) दुःखी है -दुःख के उत्पादक हैं। वे विवेकमूढ अनन्त संसार में बार-बार लुप्त होते हैं।
इसलिए पण्डितपुरुष अनेकविध पाश या बंधनरूप स्त्री- पुत्रादि के संबंधों की, जो कि जन्म-मरण के कारण हैं, समीक्षा करके स्वयं सत्य की खोज करे और सब प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव रखे।
तत्त्व, परमार्थ, द्रव्य-स्वभाव, पर- अपर, ध्येय, शुद्ध, परम- ये सब शब्द एकार्थवाची हैं।
जीव, अजीव, बंध, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा और मोक्ष-ये नौ तत्त्व या पदार्थ हैं।
जीव का लक्षण उपयोग है। यह अनादि निधन है, शरीर से भिन्न है, अरूपी है और अपने कर्म का कर्ताभोक्ता है।
श्रमणों ने उसे अजीव कहा है जिसे सुख-दुःख का ज्ञान नहीं होता, हित के प्रति उद्यत और अहित का भय नहीं होता।
अजीव द्रव्य पांच प्रकार का है - पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल । इनमें से पुद्गल रूपादि गुण युक्त होने से मूर्त है। शेष चारों अमूर्त हैं।