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आत्मा का दर्शन
५९५. नो इन्दियग्गेज्झ अमुत्तभावा,
अमुत्तभावाविय होइ निच्चो । अज्झत्थहेउं निययऽस्स बन्धो,
संसारहेउं च वयन्ति बन्धं ॥
५९६. रत्तो बंधदि कम्मं,
एसो बंधसमासो,
मुच्चदि कम्मेहिं रागरहिदप्पा |
जीवाणं जाण णिच्छयदो ॥
५९७. तम्हा णिव्वुदिकामो,
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रागं सव्वत्थ कुणदिमा किंचि । सो तेण वीदरागो, भवियो भवसायरं तरदि ।
५९८. कम्मं पुण्णं पावं, हेऊ तेसिं च होंति सच्छिदरा । मंदकसाया सच्छा, तिव्वकसाया असच्छा हु ॥
५९९. सव्वत्थ वि पियवयणं,
दुव्वयणे दुज्जणे वि खमकरणं । सव्वेसिं गुणगहणं, मंदकसायाण दिट्ठता ॥
६००. अप्प-पसंसण-करणं,
पुज्जेसु वि दोस- गहण - सीलत्तं । वेर-धरणं च सुइरं,
तिव्व - कसायाण लिंगाणि ॥ ६०१. रागद्दोसपमत्तो, इंदियवसओ करेइ कम्माई । आसवदारेहिं अवि-गुहेहिं तिविहेण करणेणं ॥
६०२. आसवदारेहिं सया, हिंसाईएहिं कम्म मासवइ । जह नावाइ विणासो, छिद्देहि जलं उयहि-मज्झे ॥
६०३. मणसा वाया कायेण,
का वित्तस्स विरिय - परिणामो । जीवस्स-प्पणिओगो, जोगो त्ति जिणेहिं णिद्दिट्ठो ॥
खण्ड - ५
आत्मा (जीव) अमूर्त है, अतः वह इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य नहीं है। अमूर्त पदार्थ नित्य होता है। आत्मा के आंतरिक रागादि भाव ही निश्चयतः बंध के कारण हैं और बंध को संसार का हेतु कहा गया है।
रागयुक्त आत्मा ही कर्मबंध करती है। रागरहित आत्मा कर्मों से मुक्त होती है। यह निश्चय से संक्षेप में जीवों के बंध का कथन है।
इसलिए मोक्षाभिलाषी को तनिक भी राग नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से वह वीतराग होकर भवसागर को तैर जाता है।
कर्म दो प्रकार का है - पुण्य और पाप । पुण्यकर्म के बंध का हेतु स्वच्छ शुभभाव है और पापकर्म के बंध का हेतु अस्वच्छ अशुभ भाव है। मंदकषायी जीव के भाव स्वच्छ होते हैं तथा तीव्रकषायी जीव के अस्वच्छ ।
सर्वत्र ही प्रिय वचन बोलना, दुर्वचन बोलने वाले को भी क्षमा करना तथा सबके गुणों को ग्रहण करना - ये मंदकषायी जीवों के लक्षण हैं।
अपनी प्रशंसा करना, पूज्य पुरुषों में भी दोष निकालने का स्वभाव होना, दीर्घकाल तक वैर की गांठ को बांधे रखना ये तीव्र कषाय वाले जीवों के लक्षण या चिह्न हैं।
रागद्वेष से प्रमत्त बना जीव इन्द्रियाधीन होकर मनवचन-काय के द्वारा उसके आस्रव द्वार बराबर खुले रहने के कारण निरंतर कर्म करता रहता है।
हिंसा आदि आस्रवद्वारों से सदा कर्मों का आगमन होता रहता है, जैसे कि समुद्र में जल के आने से सछिद्र डूब जाती है।
(योग भी आस्रव है।) मन, वचन, काय से युक्त जीव का जो वीर्य परिणाम या प्रदेश परिस्पन्दनरूप प्राणियोग होता है, उसे योग कहते हैं।