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________________ आत्मा का दर्शन ४७२ खण्ड-४ पोसहोववासेहिं अप्पाणं भावमाणस्स चोइस अपने आपको भावित कर रहा था। इस प्रकार चौदह वर्ष संवच्छराइं वीइक्कंताई। पण्णरसमस्स। बीत गए। पन्द्रहवां वर्ष चल रहा था। एक बार मध्यरात्रि संवच्छरस्स अंतरा वट्टमाणस्स अण्णदा कदाइ के समय धर्मजागरिका करते हुए उसे मानसिक संकल्प पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागर- उत्पन्न हुआ-इस वाणिज्यग्राम नगर में राजा, अमात्य, माणस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए चिंतिए पत्थिए नगररक्षक, सीमावर्ती राजा, श्रेष्ठी, सेनापति और मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था एवं खलु अहं सार्थवाह सभी लोग अनेक कार्य, कारणों, समस्याओं, वाणियगामे नयरे बहूणं राईसर-तलवर-माडंबिय- गुह्यवार्ताओं, मंत्रणाओं तथा नैश्चयिक और व्यावहारिक कोडुंबिय-इन्भ-सेट्ठि-सेणावइ-सत्थ-वाहाणं बहूसु । प्रसंगों में मुझे पूछते हैं, मेरा परामर्श लेते हैं, अपने कुटुंब कज्जेसु य कारणेसु य कुटुंबेसु य मंतेसु य गुज्झेसु में भी मैं मेढी (खलिहान का खंभा) प्रमाण, आधार, य रहस्सेसु य निच्छएसु य ववहारेसु य । आलंबन और चक्षु हूं। इस विक्षेप के कारण मैं श्रमण आपुच्छणिज्जे पडिपुच्छणिज्जे सयस्स वि य णं भगवान महावीर के पास स्वीकृत धर्मप्रज्ञप्ति की आराधना कुडंबस्स मेढी पमाणं आहारे आलंबणं चक्खू, नहीं कर सकता। मेढीभूए पमाणभूए, आहारभूए आलंबणभूए चक्खुभूए सव्वकज्जवड्ढावए तं एतेणं वक्खेवेणं अहं नो संचाएमि समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मपण्णत्तिं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए। तं सेयं खलु ममं कल्लं.......विपुलं असण-पाण- मेरे लिए यह श्रेय है कि मैं कल ही विपुल अशनखाइम-साइमं उवक्खडावेत्ता, मित्त-नाइ-नियग- पान-खाद्य-स्वाद्य रूप भोजन सामग्री तैयार करवाऊं, सयण-संबंधिपरिजणं आमंतेत्ता, तं मित्त-नाइ- मित्रों, ज्ञातिजनों, स्वजनों, संबंधियों और कुटुंबिकों को नियग-सयण-संबंधि-परिजणं विपुलेणं असण- भोजन के लिए आमंत्रित करूं, उन्हें प्रीतिदान देकर पाण-खाइम-साइमेणं वत्थगंधमल्लालंकारेण य । सम्मानित करूं तथा उनके सामने अपने ज्येष्ठ पुत्र को सक्कारेत्ता सम्माणेत्ता, तस्सेव मित्त-नाइ-नियग- कुटुम्ब के प्रमुख रूप में स्थापित कर कोलाग सन्निवेश में सयण-संबंधि-परिजणस्स पुरओ जेट्टपुत्तं कुडंबे ज्ञात या नागकुल की पौषधशाला का प्रतिलेखन कर' ठवेत्ता तं मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परिजणं श्रमण भगवान महावीर के पास स्वीकृत धर्मप्रज्ञप्ति की जेठ्ठपुत्तं च आपुच्छित्ता, कोल्लाए सण्णिवेसे आराधना करूं। नायकुलंसि पोसहसालं पडिलेहित्ता, समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मपण्णत्तिं उवसंपन्जित्ता णं विहरित्तए-एवं संपेहेइ...... ७९.तए णं से आणदे समणोवासए तस्सेव मित्त-नाइनियग-सयण-संबंधि-परिजणस्स पुरओ जेठपुत्तं कुटुंबं ठावेति, ठावेत्ता एवं वयासी-मा णं देवाणुप्पिया! तुब्भे अज्जप्पभिई केइ ममं बहूसु कज्जेसु य कारणेसु य मंतेसु य कुडुंबेसु य गुज्झेसु य निच्छाएसु य ववहारेसु य आपुच्छउ वा, ममं अट्ठाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा उवक्खडेउ वा उवक्करेउ वा। दूसरे दिन अपने इस चिंतन की क्रियान्विति करते हुए श्रमणोपासक आनंद ने मित्रों आदि के सामने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब-प्रमुख के रूप में स्थापित किया और कहादेवानुप्रिय आज के बाद तुम किसी भी कार्य, कारण, समस्या, गुप्तवार्ता, मंत्रणा, नैश्चयिक और व्यावहारिक किसी भी प्रसंग में मुझे मत पूछना। मेरा परामर्श मत लेना और मेरे लिए अशन-पान आदि किसी प्रकार की भोजन सामग्री भी तैयार मत करना।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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