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________________ प्रायोगिक दर्शन ४७३ ८०. तए णं से आणदे समणोवासए जेठपुत्तं मित्तनाइ-नियग-सयण-संबंधि - परिजणं च आपुच्छर, आपुच्छित्ता सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता वाणियगामं नयरं मज्झमज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव कोल्लाए सण्णिवेसे, जेणेव नायकुले, जेणेव पोसहसाला, तेणेव उवागच्छह, उवागच्छित्ता पोसहसालं पमज्जइ, पमज्जित्ता उच्चार- पासवणभूमि पडिलेहेइ, पडिलेहेत्ता दब्भसंथारयं संथरेइ, संथरेत्ता दब्भसंधारयं दुरुहइ, दुरुहित्ता पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी उम्मुक्कमणि-सुवण्णे ववगयमालावण्णगविलेवणे. निक्खित्त - सत्थमुसले एगे अबीए दम्भ - संथारोवगए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मपण्णत्तिं उवसंपज्जित्ता णं विहरइ । आनंद द्वारा प्रतिमाओं का स्वीकरण ८९. तए णं से आणंदे समणोवासए पढमं उवासगपडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरं । ८२. तए णं से आणदे समणोवासए पढमं उवासगपडिमं अहासुतं अहाकप्पं अहामग्गं अहातच्चं सम्मं कारणं फासेइ पालेइ सोहेइ तीरेइ कित्तेइ आराहे । ८३. तए णं आणंदे समणोवासए दोच्चं उवासगपडिमं, एवं तच्चं चउत्थं, पंचमं, छट्ठ, सत्तमं, अट्ठमं, नवमं, दसमं, एक्कारसमं उवास पडिमं अहासुतं अहाकप्पं.. आराहेइ । ८४. तए णं से आणदे समणोवासए इमेणं एयारूवेणं ओरालेणं विउलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं तवोकम्मेणं सुक्के लक्खे निम्मंसे अट्ठिचम्मावणदे किडकिडियाभूए किसे धमणिसंतए जाए। तीन जागरिका ८५. अज्जोति ! समणे भगवं महावीरे ते समणोवासए एवं वयासी - मा णं अज्जो! तुब्भे संखं अ. ४ : सम्यक् चारित्र श्रमणोपासक आनंद ने ज्येष्ठपुत्र और मित्रों आदि की अनुमति प्राप्त की। अपने घर से अभिनिष्क्रमण किया । वाणिज्यग्राम नगर के मध्य से होता हुआ कोलागसन्निवेश में ज्ञात या नागकुल की पौषधशाला में आया। पौषधशाला का प्रमार्जन किया, उच्चार- प्रस्रवणभूमि का प्रतिलेखन किया । दर्भ का बिछौना किया। उस पर बैठकर पौषधव्रत स्वीकार करते हुए ब्रह्मचर्य की साधना का संकल्प किया। मणि-स्वर्ण का परित्याग किया। मालावर्ण-विलेपन आदि का उपयोग न करने की प्रतिज्ञा की। शस्त्र, मूसल आदि का प्रयोग छोड़ा। अकेला और अद्वितीय बनकर श्रमण महावीर के पास स्वीकृत धर्मप्रज्ञप्ति की आराधना करने लगा। श्रमणोपासक आनंद ने पहली उपासक प्रतिमा स्वीकार की। प्रथम उपासक प्रतिमा स्वीकार कर यथासूत्र, यथाकल्प, यथामार्ग, यथातथ्य, सम्यक् प्रकार से काया से आचरण, पालन, शोधन, पूर्णकीर्तन और पालन करने लगा । श्रमणोपासक आनंद इसी प्रकार दूसरी, तीसरी, चौथी, पांचवीं, छठी, सातवीं, आठवीं, नौवीं, दसवीं एवं ग्यारहवीं उपासक प्रतिमा का यथासूत्र, यथाकल्प आराधन करने लगा। इस प्रकार के उदार, विपुल, संयत और स्वीकृत तपःकर्म के कारण श्रमणोपासक आनंद का शरीर सूखा रूखा और मांसरहित हो गया। हड्डियों का ढांचा मात्र रह गया। चलते समय हड्डियां कट कट बोलने लगीं। कृश हो गया। धमनियों का जाल मात्र रह गया। पोक्खली आदि श्रावकों ने शंख श्रावक की अवहेलना की तब श्रमण भगवान महावीर ने कहा- हे आर्यो ! तुम
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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