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________________ आत्मा का दर्शन ५२२ खण्ड-४ शिक्षा का प्रायोगिक रूप १५.तए णं समणे भगवं महावीरे मेहं कुमारं सयमेव पव्वावेइ। सयमेव मुंडावेइ। सयमेव सेहावेइ। सयमेव सिक्खावेइ। सयमेव आयार-गोयरविणय-वेणइय-चरण-करण-जायामायावत्तियं धम्ममाइक्खइ-एवं देवाणुप्पिया! गंतव्वं, एवं चिट्ठियव्वं, एवं निसीयव्वं, एवं तुयट्टियव्वं, एवं भुंजियव्वं, एवं भासियव्वं, एवं उठाए उठाय पाणेहिं, भूएहिं, जीवहिं, सत्तेहिं संजमेणं संजमियव्वं अस्सिं च णं अट्ठे नो पमाएयव्वं । श्रमण भगवान महावीर मेघकुमार को स्वयं प्रव्रजित करते हैं। स्वयं मुंडित करते हैं। स्वयं दीक्षित और शिक्षित करते हैं। स्वयं उसे आचार, गोचर, विनय, वैनयिक, चरण, करण और जीवन यात्रा से संबंधित धर्म का आख्यान करते हैं-देवानुप्रिय! तुम्हें ऐसे (संयमपूर्वक) चलना है। ऐसे खड़े होना है। ऐसे सोना है। ऐसे खाना और बोलना है। तुम इस उत्थान (आत्मबोध) से उत्थित हुए हो इसलिए तुम्हें प्राण, भूत जीव व सत्त्व के प्रति संयम का आचरण करना है। इस कार्य में तुम किचिंत भी प्रमाद नहीं करोगे। १६.अणुसासणमोवायं दुक्कडस्स य चोयणं। हियं तं मन्नए पण्णो वेसं होइ असाहुणो॥ मृदु या कठोर वचनों से किया जाने वाला अनुशासन दृष्कृत का निवारक होता है। प्रज्ञावान मुनि उसे हित मानता है। अप्रज्ञावान के लिए वह द्वेष का हेतु बन जाता है। १७.खड्डया मे चवेडा मे अक्कोसा य वहाय मे। कल्लाणमणुसासंतो पावदिदिठ त्ति मन्नई। पापदृष्टि वाला शिष्य गुरु के कल्याणकारी, अनुशासन को भी ठोकर मारने, चांटा जड़ने, गाली देने व प्रहार करने के समान मानता है। , . १८.पुत्तो मे भाय नाइ त्ति साह कल्लाण मन्नई।, पावदिछी उ अप्पाणं सासं दासंघ मन्नई। गुरु मुझे पुत्र, भाई और स्वजन की तरह अपना समझकर शिक्षा देते हैं। ऐसा सोच विनीत शिष्य उनके अनुशासन को कल्याणकारी मानता है, परन्तु अविनीत शिष्य हितानुशासन से शासित होने पर अपने को दास तुल्य मानता है। १९.अणासवा थूलवया कुसीला मिउं वि चण्डं पकरेंति सीसा। चित्ताणुया लहु दक्खोववेया पसायए ते हु दुरासयं पि॥ आज्ञा को न मानने वाले और असंबद्ध बोलनेवाले कुशील शिष्य कोमल स्वभाववाले गुरु को भी क्रोधी बना देते हैं। चित्त के अनुसार चलने वाले और पटुता से कार्य को सम्पन्न करनेवाले शिष्य दुराशय-शीघ्र कुपित होने वाले गुरु को भी प्रसन्न कर देते हैं। २०.किं ताए पढियाए पयकोडीए वि पलालभूयाए। जइ इत्तो वि न जाणं परस्स पीडा न कायव्वा॥ उन करोड़ों पद्यों को पढ़ने से क्या, जो व्यक्ति को इतना विवेक भी नहीं दे सकते कि दूसरों को पीड़ित नहीं करना चाहिए। पर-पीड़ा को नहीं समझने वाले का ज्ञान पलाल की तरह निस्सार होता है।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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