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________________ संबोधि ३१७ अ. १२ : ज्ञेय हेय-उपादेय भगवान् प्राह ८४.आवृतं नहि जानाति, प्रतिहतं न चेष्टते। मूढं विकारमाप्नोति, श्रद्धायां चरणेऽपि च॥ भगवान् ने कहा-जो चित्त आवृत होता है, वह नहीं जानता। जो चित्त प्रतिहत होता है, वह उद्योग नहीं करता। जो चित्त मूढ होता है, वह श्रद्धा और चारित्र को प्राप्त नहीं होता। मेघः प्राह ८५. केन स्यादावृतं चित्तं? केन प्रतिहतं भवेत् ? मूढं च जायते केन? ज्ञातुमिच्छामि सर्ववित्! मेघ बोला-हे सर्वज्ञ! चित्त किससे आवृत होता है? किससे प्रतिहत होता है? और किससे मूढ बनता है? यह मैं जानना चाहता हूं। भगवान् प्राह ८६. आवृतं जायते चित्तं, ज्ञानावरणयोगतः। हतं स्यादन्तरायण, मूढं मोहेन जायते॥ भगवान् ने कहा-चित्त ज्ञानावरणीय कर्म से आवृत होता है, अंतराय कर्म से प्रतिहत होता है और मोह कर्म से मूढ बनता है। ॥ व्याख्या ॥ भगवान् महावीर की दृष्टि में ज्ञानावरणीय, अंतराय और मोहनीय-ये तीन कर्म बाधक हैं। ज्ञान पर जो आवरण है, वह ज्ञानावरणीय है, आत्मा को जानने में यह बाधा डालता है। जब यह हट जाता है तब ज्ञान का क्षेत्र व्यापक बन जाता है। आत्म-विकास में विघ्न डालने वाला कर्म अंतराय है। वह आत्म-शक्ति के अजस्र स्रोत को रोकता है। मनुष्य यथार्थ को जानता हुआ भी उसमें उद्योग नहीं करता। यथार्थ के प्रति श्रद्धाशील न होना और न उसको स्वीकार करना यह मोहनीय कर्म की देन है। मोहोदय से मनुष्य भौतिक आकर्षणों में फंसा रहता है। सत्य के प्रति न उसकी अभिरुचि होती है, न वह सत्य का आचरण ही करता है। किन्तु उल्टा इसे अपनी शांति में बाधक मानता है। यह मूढ़ता मोहजन्य है। ८७.स्वसम्मत्याऽपि विज्ञाय, धर्मसारं निशम्य वा। मतिमान् मानवो नूनं, प्रत्याचक्षीत पापकम्॥ बुद्धिमान् मनुष्य धर्म के सार को अपनी सहज बुद्धि से जानकर या सुनकर पाप का प्रत्याख्यान करे। ॥ व्याख्या ॥ __ बुद्ध ने कहा-भिक्षुओ! मैं आदरणीय, श्रद्धेय और सम्मानीय हूं, इसलिए मेरी वाणी को स्वीकार मत करो, किन्तु अपनी मेधा-बद्धि से परीक्षण करके स्वीकार करो-'परीक्ष्य भिक्षवो ग्राह्य मद्धचो न त गौरवात।' महावीर भी यही बुद्धि से परखो-'मइमं पास।' और भी आत्मद्रष्टा ऋषियों का यही स्वर है। मुहम्मद ने कहा है-'सब जगह मुझे ही प्रमाण मत मानो।' किन्तु व्यवहार में यह कम ही होता है। मनुष्य की बुद्धि कुछ परिपक्व होती है उससे पूर्व ही वह धर्म को पकड़ लेता है। जन्म के साथ धर्म का जन्म होना देखा जाता है। कहते हैं दुनियां में हजारों मत-मतान्तर हैं। प्रायः व्यक्ति अपनी सीमा में खड़े मिलते हैं। हिन्दु, बौद्ध, जैन, ईसाई, मुस्लिम, सिक्ख आदि का चोला जन्म के साथ धारण हो जाता है। . मनुष्य में धर्म की भूख-जिज्ञासा पैदा ही नहीं होती। उससे पूर्व धर्म का भोजन उसे प्राप्त हो जाता है। सत्य का मार्ग उद्घाटित नहीं होता। सत्य की प्यास पैदा होना कठिन है और प्यास पैदा हो जाए जो फिर पानी मिलना सरल नहीं है। जीसस ने कहा है-धन्य हैं वे जिन्हें धर्म की भूख है क्योंकि उनकी भूख तृप्त हो जाएगी। सबसे पहले यह अपेक्षित है कि व्यक्ति में धर्म की भूख जागृत हो। पाप कर्म से निवृत्त होना कठिन नहीं है जितना कि धर्म की भूख का जागरण होना है। अर्जुनमाली, अंगुलिमान, वाल्मिकी आदि प्रसिद्ध हैं जिनको धर्म की प्यास पैदा होते ही मार्ग मिला और उनके पाप छटते चले गए। . ८८. उपायान् संविजानीयाद्, आयुःक्षेमस्य चात्मनः। संयमशील पण्डित अपने जीवन के कल्याणकर उपायों को क्षिप्रमेव यतिस्तेषां, शिक्षा शिक्षेत पण्डितः॥ जाने और उनका शीघ्र अभ्यास करे।
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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