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________________ ॥ व्याख्या ॥ अहिंसा अणुव्रत गृहस्थ के लिए आरंभज कृषि, वाणिज्य आदि में होने वाली हिंसा से बचना कठिन होता है। गृहस्थ पर कुटुम्ब, समाज और राज्य का दायित्व होता है, इस लिए सापराध या विरोधी हिंसा से बचना भी उसके लिए कठिन होता है। गृहस्थ को घर आदि चलाने के लिए वध, बंध आदि का सहारा लेना पड़ता है, इसलिए सापेक्ष हिंसा से बचना भी उसके लिए कठिन होता है। वह सामाजिक जीवन के मोह का भार वहन करते हुए केवल संकल्पपूर्वक निरपराध जीवों की निरपेक्ष हिंसा से बचता है, यही उसका अहिंसा अणुव्रत है। सत्य अणुव्रत गृहस्थ संपूर्ण असत्य का त्याग करने में असमर्थ होता है परंतु वह ऐसे असत्य का त्याग कर सकता है जिससे किसी निर्दोष प्राणी को बहुत बड़ा संकट का सामना न करना पड़े। यह सत्य अणुव्रत है। अस्तेय अणुव्रत गृहस्थ छोटी-बड़ी सभी प्रकार की चोरी छोड़ने में अपने आपको असमर्थ पाता है। किन्तु वह सामान्यतः ऐसी चोरी छोड़ सकता है, जिसके लिए उसे राज्य दंड मिले और लोक निंदा करे। डाका डालना, ताला तोड़कर, लूटखसोटकर दूसरों के धन का अपहरण करना-ये सब सद्गृहस्थ के लिए वर्जनीय हैं। ब्रह्मचर्य अणुव्रत गृहस्थ पूर्ण ब्रह्मचारी नहीं बन सकता किन्तु वह अब्रह्मचर्य के सेवन की सीमा कर सकता है। परस्त्रीगमन, वैश्यागमन आदि अवांछनीय प्रवृत्तियां हैं। सद्गृहस्थ इनसे बचकर 'स्वदारसंतोष' व्रत अपना सकता है। वह अपनी परिणीता स्त्री में ही संतुष्ट रहता है तथा अब्रह्मचर्य की मर्यादा करता है। यह ब्रह्मचर्य अणुव्रत है। अपरिग्रह अणुव्रत गृहस्थ समस्त परिग्रह त्याग नहीं कर सकता किन्तु वह अपनी लालसा को सीमाबद्ध कर सकता है। यही अपरिग्रह अणुव्रत है। इसका तात्पर्य यह नहीं कि वह सब कुछ छोड़कर संन्यासी बन जाए, किन्तु इसका प्रतिपाद्य इतना ही है कि वह अतिलालसा में फंसकर अपनी मर्यादाओं को न भूल बैठे। जिसमें लालसा की तीव्रता होती है, वह दोषों से आक्रांत हो जाता है। गुणव्रत जो व्रत उपासक की बाह्य-चर्या को संयमित करते हैं, उन्हें गुणव्रत कहा जाता है। वे तीन हैं : १. दिविरति-पूर्व, पश्चिम आदि सभी दिशाओं का परिमाण निश्चित कर उसके बाहर न जाने का व्रत। २. उपभोग-परिभोग परिमाण-अपने उपयोग में आनेवाली वस्तुओं का परिमाण करना। ३. अनर्थदंड विरति-बिना प्रयोजन हिंसा करने का त्याग करना। शिक्षाव्रत जो व्रत अभ्यास-साध्य होते हैं और आंतरिक पवित्रता बढाते हैं, उन्हें शिक्षाव्रत कहा जाता है। वे चार हैं : १. सामायिक-जिससे पापमय प्रवृत्तियों से विरत होने का विकास होता है उसे सामायिक व्रत कहते हैं। . २. देशावकाशिक-एक निश्चित अवधि के लिए विधिपूर्वक हिंसा का परित्याग करना। ३. पौषध-उपवासपूर्वक असत् प्रवृत्ति की विरति करना। ४. अतिथिसंविभाग अपना विसर्जन कर पात्र (मुनि) को दान देना। (गुणव्रत और शिक्षाव्रत के विवरण के लिए देखें-१४/३१-३७) इस प्रकार पांच अणुव्रतों, तीन गुणव्रतों और चार शिक्षाव्रतों-बारह व्रतों को धारण करने वाला बारहव्रती श्रावक होता है। जब वह व्रती की कक्षा में उत्तीर्ण हो जाता है और संयम का उत्कर्ष तथा मन का निग्रह करने के लिए तत्पर होता है तब वह उपासक की ग्यारह प्रतिमाओं को स्वीकार करता है। (प्रतिमाओं के विवरण के लिए देखें १४/४०-४२)
SR No.002210
Book TitleAatma ka Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Vishva Bharti
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year2008
Total Pages792
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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