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संबोधि
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अ.६ : क्रिया-अक्रियावाद ११.एकेभ्यः सन्ति साधुभ्यः गृहस्थाः संयमोत्तराः। कुछ साधुओं से गृहस्थों का संयम श्रेष्ठ होता है, परंतु सभी गृहस्थेभ्यश्च सर्वेभ्यः, साधवः संयमोत्तराः॥ गृहस्थों से साधुओं का संयम श्रेष्ठ होता है।
॥ व्याख्या ॥ संयम के अभाव में साधना नहीं निखरती। व्यक्ति का विकास संयम में होता है। संयम का अर्थ है-स्व में प्रवृत्त होना, बहिर्व्यापार से मुक्त होना। वहां इन्द्रिय, शरीर और मन का संपर्क छूट जाता है। साधना वहीं साकार होती है। साधना के वेश में यदि संयम का उद्दीपन नहीं है तो उस प्रकार के मुनि से एक संयमयुक्त गृहस्थ भी श्रेष्ठ होता है। किन्तु जिस साधना में संयम की प्रमुखता है वहां गृहस्थ का स्थान साधनारत साधकों से ऊंचा नहीं होता। १२.भिक्षादा वा गृहस्था बा, ये सन्ति परिनिर्वृताः। जो भिक्षु या गृहस्थ शांत और सुव्रत होते हैं, वे तप और
तपःसंयममभ्यस्य, दिवं गच्छन्ति सुव्रताः॥ संयम का अभ्यास कर स्वर्ग में जाते हैं। .
१३.गृही सामायिकाङ्गानि, श्रद्धी कायेन संस्पृशेत्। -- पौषधं पक्षयोर्मध्येऽप्येकरात्रं न हापयेत्॥
श्रद्धावान् गृहस्थ काया से सामायिक के अंगों का आचरण करे। दोनों पक्षों में किए जाने वाले पौषध को एक दिन-रात भी न छोड़े-कभी न छोड़े।
१४.एवं शिक्षासमापन्नो, गृहवासेऽपि सुव्रतः। . अमेध्यं देहमुज्झित्वा, देवलोकं च गच्छति॥
इस प्रकार शिक्षा से संपन्न सुव्रती मनुष्य गृहवास में भी अशुचि शरीर को छोड़कर देवलोक में जाता है।
१५.दीर्घायुष ऋद्धिमन्तः, समृद्धाः कामरूपिणः। जो गृहस्थ या साधु धर्म की आराधना करते हैं, वे स्वर्ग में
अधुनोत्पन्नसंकाशाः, · अर्चिमालिसमप्रभाः॥ दीर्घायु, ऋद्धिमान, समृद्ध, इच्छानुसार रूप धारण करने वाले, १६.देवा दिवि भवन्त्येते, धर्म स्पृशन्ति ये जनाः। अभी उत्पन्न हुए हों-ऐसी कान्ति वाले और सूर्य के जैसी दीप्ति अगारिणोऽनगारा वा, संयमस्तत्र कारणम्॥ वाले देव होते हैं। उसका कारण संयम है।
(युग्मम्)
॥ व्याख्या ॥ . 'संयम का मुख्य फल है-कर्म-निर्जरण, आत्म पवित्रता। उसका गौण फल है-देवलोक आदि की प्राप्ति।
संयम आत्म-जागरण है। उसके आत्म-गुणों का उपबृंहण होता है। आत्मा के मूल गुण हैं-अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतचारित्र, सहज आनंद आदि-आदि। संयम इन सब की प्राप्ति का साधन है।
देवलोक आदि पौद्गलिक स्थितियों की प्राप्ति उसका सहचारी फल है। प्रस्तुत श्लोकों में उसी का प्रतिपादन है। १७.सर्वथा संवृतो भिक्षुः, द्वयोरन्यतरो भवेत्। जो भिक्षु सर्वथा संवृत है-कर्म-आगमन के हेतुओं का . कृत्स्नकर्मक्षयान्मुक्तो, देवो वापि महर्द्धिकः॥ निरोध किए हुए है, वह इन दोनों में से किसी एक अवस्था को
प्राप्त होता है-सब कर्मों का क्षय हो जाए तो वह मुक्त हो जाता है, अन्यथा समृद्धिशली देव बनता है।
॥ व्याख्या ॥ कारण के बिना कार्य की उपलब्धि नहीं होती। परिदृश्यमान जगत् कार्य है तो निस्संदेह उसका अदृश्य कारण भी होना चाहिए। तृष्णा, वासना, या कर्म कारण है। कारण की परंपरा का निर्मूलन करना साधना का वास्तविक ध्येय है। कर्म से प्रवृत्ति-चंचलता पैदा होती है और चंचलता से पुनः कर्म का सर्जन होता है। कर्म का यह क्रम टूटता नहीं है। साधना उस क्रम को तोड़ने का शस्त्र है। साधक की साधना यदि प्रवृत्तिशून्यता की चरम सीमा का स्पर्श कर १. उत्तराध्ययन ५/२३॥