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आत्मा का दर्शन
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खण्ड-३
लेती है तो वह अयोगी (प्रवृत्ति-मुक्त) सर्व दुःखों से मुक्त हो जाता है। यदि प्रवृत्ति का क्रम पूर्णतया निरुद्ध नहीं हुआ है तो पुनः जन्म लेना उसके लिए अनिवार्य है। किंतु इस बीच वह अपने असीम पुण्य-बल से एक बार स्वर्ग में जन्म ले पुनः वहां से मनुष्य जीवन में अवतरित होता है। साधना का पुनः अवसर प्राप्त कर जीवन के सर्वोच्च विकास-शिखर को छू लेता है।
गीता में वर्णित योग-भ्रष्ट व्यक्ति के साथ इसका यत् किचित् सामंजस्य किया जा सकता है।
योग-भ्रष्ट शब्द का अभिप्राय यह हो कि वह योग-मार्ग को पूर्णतया साध नहीं सका, तो यहां कोई भिन्नता जैसी बात नहीं रहती। यदि इसका अर्थ-योग-मार्ग से च्युत हो या बीच में ही छोड़ दिया हो तो फिर दूसरी बात है। किंतु आगे के वर्णन से स्पष्ट है कि वह व्यक्ति किसी योनि में योग-कुल में आकर जन्म ग्रहण करता है और अपने अवशेष योग की साधना में संलग्न होकर उसे परिपूर्णतया साध लेता है।
१८.यथा त्रयो हि वणिजो, मूलमादाय निर्गताः।
एकोऽत्र लभते लाभं, एको मूलेन आगतः॥ १९.हारयित्वा मूलमेकः, आगतस्तत्र वाणिजः। उपमा व्यवहारेऽसौ, एवं धर्मेऽपि बुद्ध्यताम्॥
(युग्मम्)
जिस प्रकार तीन वणिक् मूल पूंजी लेकर व्यापार के लिए चले। एक ने लाभ कमाया, एक मूल पूंजी लेकर लौट आया
और एक ने सब कुछ खो डाला। यह व्यापार विषयक उदाहरण है। इसी प्रकार धर्म के विषय में भी जानना चाहिए।
२०.मनुष्यत्वं भवेन्मूलं, लाभः स्वर्गोऽमृतं तथा।
मूलच्छेदेन जीवाः स्युः, तिर्यञ्चो नारकास्तथा॥
मनुष्य-जन्म मूल पूंजी है। स्वर्ग या मोक्ष की प्राप्ति लाभ है। मूल पूंजी को खो डालने से जीव नरक या तिर्यंच गति को प्राप्त होते हैं।
२१.विमात्राभिश्च शिक्षाभिः, ये नरा गृहसुव्रताः। .. आयान्ति मानुषीं योनि, कर्मसत्या हि प्राणिनः॥
जो लोग विविध प्रकार की शिक्षाओं से गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी सुव्रती हैं, सदाचार का पालन करते हैं, वे मनुष्य योनि को प्राप्त होते हैं क्योंकि प्राणी कर्मसत्य होते हैं जैसे कर्म करते हैं वैसे ही फल को प्राप्त होते हैं।
२२.येषां तु विपुला शिक्षा, ते च मूलमतिसृताः।
सकर्माणो दिवं यान्ति, सिद्धिं यान्त्यरजोमलाः॥
जिनके पास विपुल ज्ञानात्मक और क्रियात्मक शिक्षा है, वे मूल पूंजी की वृद्धि करते हैं। वे कर्मयुक्त हों तो स्वर्ग को प्राप्त होते हैं और जब उनके रज और मल का (बंधन और बंधन के हेतु का) नाश हो जाता है तब वे मुक्त हो जाते हैं।
२३. आगारमावसंल्लोकः, सर्वप्राणेषु संयतः। घर में निवास करने वाला व्यक्ति सब प्राणियों के प्रति समतां सुव्रतो गच्छन्, स्वर्ग गच्छति नाऽमृतम्॥ स्थूल रूप से संयत होता है। जो सुव्रत है और समभाव की
आराधना करता है, वह स्वर्ग को प्राप्त होता है, किन्तु हिंसा और परिग्रह के बंधन से सर्वथा मुक्त न होने के कारण वह मोक्ष को
नहीं पा सकता।
॥ व्याख्या ॥ जीवों की विविध योनियां है। उसमें मानव-जीवन सर्वश्रेष्ठ है। समस्त अध्यात्मद्रष्टा संतों ने एक स्वर से इस सत्य को स्वीकार किया है। मानवीय जीवन से नीचे स्तर के प्राणियों में विवेक की मात्रा इतनी विकसित नहीं है जितनी कि मनुष्य में। मनुष्य-जीवन द्वार है जिससे वह नीचे और ऊपर दोनों तरफ गति कर सकता है। नीचे और