________________
संबोधि .
२०९
अ.६ : क्रिया-अक्रियावाद
ऊपर जाने का स्वातंत्र्य भी उसके हाथ में है। निर्णय यह करना है कि जाना कहा है? अनेक व्यक्ति जीवन की परिसमाप्ति तक निर्णय नहीं कर पाते। ये सरिता के प्रवाह में लुढ़कते हुए पत्थरों की तरह हैं। कर्म के प्रवाह में प्रवाहित होते हुए आए और वैसे ही चले गए। किन्तु जीवन उन्हीं के लिए हैं जो ऊपर उठने का निर्णय लेते हैं और उस दिशा में अनवरत गतिशील रहते हैं।
मूल स्थिति मनुष्य जीवन है। मानव देह से पुनः मानव देह धारण करना, यह भी इतना सहज नहीं है। इसका सौभाग्य भी किसी-किसी को उपलब्ध होता है। अनेक लोग हैं और उनकी जीवन-पद्धतियां-संस्कार भी पृथक्-पृथक् हैं। सत्य क्या है ? अनेक लोगों से यह अविज्ञात है, तब फिर उसके साक्षात्कार की कल्पना तो कर ही नहीं सकते। आगम कहते हैं-मूल स्थिति उनके लिए पुनःशक्य है-जो सरल, विनम्र शांत और निश्छल व्यवहार युक्त हैं। मूलस्थिति से उत्थान का क्रम है-इन्द्रियों और मन का प्रत्याहार करना। उनके बहिर्गामी दौड़ को अंतर्गामी बनाना। मन को बिना एकाग्र किए और उसके स्वरूप से परिचित हुए बिना उस का नियमन कठिनतम है। संयत मन और संयत इन्द्रियां आत्म-दर्शन का द्वार उद्घाटित करती हैं। इनके द्वारा क्रमशः आरोहण के सोपानों का अतिक्रमण करते हुए व्यक्ति उच्च, उच्चतर और उच्चतम अवस्थिति को पा लेता है।
२४.दुःखावह इहाऽमुत्र, धनादीनां परिग्रहः। धन आदि पदार्थों का संग्रह इहलोक और परलोक में मुमुक्षुः स्वं दिदृक्षुः को विद्वानगारमावसेत्॥ दुःखदायी होता है। अतः मुक्त होने की इच्छा रखने वाला और
आत्म-साक्षात्कार की भावना रखने वाला कौन ऐसा विद्वान्
व्यक्ति होगा जो घर में रहे?
. ॥ व्याख्या ॥ गृहस्थ-जीवन क्लेशों से भरा है और संयम जीवन क्लेशों से मुक्त है। मनुष्य शांतिप्रिय है किन्तु वह शांति का दर्शन संयम में न करके असंयम में करता है। असंयम शांति का द्वार नहीं, अशांति का द्वार है। जो शांतिप्रिय है उसे संयम प्रिय होना चाहिए। वस्तुतः जिसे शांति प्रिय है वह धन, पुत्र आदि में उसे नहीं देखता। वह उनसे संपृक्त रहता हुआ भी धायमाता की तरह उन्हें अपना नहीं मानता। . २५. प्रमादं कर्म तत्राहुः, अप्रमादं तथापरम्। प्रमाद कर्म है और अप्रमाद अकर्म। प्रमादयुक्त प्रवृत्ति बंध का ___ तद् भावादेशत स्तच्च, बालं पण्डितमेव वा॥ और अप्रमत्तता मुक्ति का हेतु है। प्रमाद और अप्रमाद की अपेक्षा
से व्यक्ति के वीर्य-पराक्रम को बाल और पंडित कहा जाता है तथा
अभेददृष्टि से वीर्यवान् व्यक्ति भी बाल और पंडित कहलाता है।
॥ व्याख्या ॥ मनुष्य प्रवृत्ति-प्रधान है। प्रवृत्ति के बिना वह एक क्षण भी नहीं रह सकता। प्रवृत्ति के दो रूप हैं-शुभ और अशुभ। अशुभ प्रवृत्ति राग-द्वेष और मोहमय होती है। इसलिए उसे प्रमाद कहा जाता है। प्रमाद से अशुभ कर्म का संग्रह होता है। इससे आत्मा की स्वतंत्रता छीनी जाती है। शुभ प्रवृत्ति संयम-प्रधान होने से प्रमाद रूप नहीं है। उससे पुण्य-कर्म का संग्रह होता है और पूर्वबद्ध कर्मों का निर्जरण भी। कर्म-क्षय की दशा में आत्मा कर्म-ग्रहण की दृष्टि से अकर्मा बन जाती है, किन्तु चेतना की क्रिया बंद नहीं होती।
प्रमाद और अप्रमाद का प्रयोग जहां वीर्य-शक्ति के साथ होता है, वहां वह बाल-वीर्य और पंडित-वीर्य कहलाता है। बाल शब्द अबोधकता का सूचक है। पंडित की चेष्टाएं ज्ञानपूर्वक होती हैं। ज्ञान हिताहित का विवेक देता है। संयम हित है
और असंयम अहित। असंयम का परिहार और संयम का स्वीकार ज्ञान से होता है। बाल-वीर्य की अवस्था में ज्ञान का स्रोत सम्यक दिशा-संयम की ओर नहीं होता। वहां असंयम की बहुलता रहती है। पंडित-वीर्य संयम-प्रधान होता है। उसमें अशुभ कर्म का स्रोत खुला नहीं रहता। आत्मा क्रमशः शुभ से भी मुक्त होकर अकर्मा बन जाती है। १. तद् भावादेशतः-प्रमाद और अप्रमाद की अपेक्षा से।