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आत्मा का दर्शन
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खण्ड-३
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२६.प्रतीत्याऽविरतिं बालो, द्वयञ्च बालपण्डितः। अविरति की अपेक्षा से व्यक्ति को बाल, विरति-अविरतिविरतिञ्च प्रतीत्यापि, लोकः पण्डित उच्यते॥ दोनों की अपेक्षा से बाल-पंडित और विरति की अपेक्षा से पंडित
कहा जाता है।
॥ व्याख्या ॥ शक्ति का केन्द्र आत्मा है। आत्मा की अक्रियाशीलता में वीर्य सजीव नहीं होता। वीर्य के तीन स्रोत हैं : १. जो सर्वथा संयम की ओर प्रवाहित होता है। २. जो संयम-असंयम की ओर प्रवहमान रहता है। ३. जो सर्वथा संयम की ओर उन्मुख रहता है। वीर्य के मार्गों के कारण व्यक्ति के तीन रूप बनते हैं-बाल, बाल-पंडित और पंडित।
विरति का अर्थ है-पदार्थ के प्रति आसक्ति का परित्याग और अविरति का अर्थ है-पदार्थ के प्रति व्यक्त या अव्यक्त आसक्ति।
विरति और अविरति की अपेक्षा से मनुष्यों के तीन प्रकार होते हैं : बाल-असंयमी, जिसमें कुछ भी विरति नहीं होती। बाल-पंडित-उपासक, जो यथाशक्ति विरति करता है। इसमें विरति और अविरति दोनों का अस्तित्व रहता है। पंडित–पूर्ण संयमी, मुनि।
ये तीनों जैन पारिभाषिक शब्द हैं। . मेघः प्राह ।
२७.कर्माकर्मविभागोऽयं, सम्यग बद्धो मया प्रभो!
साध्यसिद्धौ महत्तत्त्वं, अप्रमादः त्वयोच्यते॥
मेघ बोला-भगवन्! मैंने कर्म और अकर्म का यह विभाग, सम्यक् प्रकार से जान लिया है। आपने अप्रमाद को साध्य-सिद्धि का महान् तत्त्व बतलाया है।
॥ व्याख्या ॥ कर्म और अकर्म का यह विभाजन मेघ ने भगवान् महावीर के श्रीमुख से सुना। कर्म और अकर्म का बोध सचमुच कठिन है। गीता में कहा है-'कवयोप्यत्र मोहिताः' बड़े-बड़े विद्वान् भी इस विषय में विमुग्ध हो जाते हैं। गीता में इसका विवेचन कर्म, अकर्म और विकर्म के रूप में उपलब्ध होता है। भगवान महावीर ने कर्म और अकर्म इन दोनों में ही सब समाहित कर दिया।
मेघ का मन इस विभाजन को सुन समाहित हो गया। वह कहता है "प्रभो! आप द्वारा विवेचित इस विषय को मैंने अच्छी तरह से जान लिया है।' 'सम्यग् बुद्धो' शब्द के द्वारा यह ध्वनित होता है कि मैंने केवल बुद्धि के स्तर पर नहीं जाना है, उपादेय बुद्धि के द्वारा जाना है, स्वीकार किया है।
साधना का मूल तत्त्व है-अप्रमाद। जीवन का पूरा चक्र प्रमाद की धुरी पर चलता है। प्राणी-जगत् प्रमाद से अधिक परिचित है, अप्रमाद से नहीं। प्रमाद के व्यूह से बाहर निकलने के लिए अप्रमाद की साधना अपेक्षित है। उस । स्थिति में अप्रमाद होगा-जागरूकता, होश। भगवान् महावीर ने लक्ष्य के प्रति यत्नवान् रहो, इस पर अधिक है। जागरूकता के बिना की गई क्रिया केवल द्रव्य-क्रिया है, उससे साध्य की प्राप्ति नहीं होती। साध्य-सिद्धि में जागरूकता की महती भूमिका है। अप्रमाद जागरूकता है, वर्तमान का क्षण है, और वह चेतना की निकटता का क्षण है। भगवान् महावीर का जीवन इसका ज्वलंत प्रमाण है। अन्य संतों ने भी इसे मूल तत्त्व माना है, और इसका प्रयोग किया है।
इति आचार्यमहाप्रज्ञविरचिते संबोधिप्रकरणे
क्रियाक्रियावादनामा षष्ठोऽध्यायः। .